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३३१. पत्र : कल्याणजी मेहताको

२८ अप्रैल, १९२८

भाईश्री कल्याणजी,

परिषद्‌में मैं हाजिर नहीं हो सकता हूँ यह तुम जानते ही हो । न आ सकनेका मुझे दुख है। किन्तु मैं इस समय लाचार हूँ। इस समय चल रहे आन्दोलनमें रानीपरज भाईबहन पूरा हिस्सा ले रहे हैं, यह बात जितनी सन्तोषजनक है उतनी ही उनको शोभनीय भी है। मैं मानता हूँ कि यह आन्दोलन निर्भयता सीखने और आत्मशुद्धिके लिए है। जो अपने आपको रानीपरज कहते हैं वह भय किस तरह रख सकते हैं ? और आत्मशुद्धिके यज्ञमें शराब, जुआ या ऐसे व्यसन अथवा विदेशी कपड़ा कैसे शोभा दे सकता है ? इसलिए मैं आशा करता हूँ कि रानीपरज भाई- बहन चरखेको ज्यादासे-ज्यादा अपनायेंगे, खादीका अधिकाधिक उपयोग करेंगे और शराब वगैरा व्यसन छोड़ देंगे।

मोहनदासके वन्देमातरम्

गुजराती (जी० एन० २६८३) की फोटो-नकलसे ।

३३२. स्वेच्छा स्वीकृत दारिद्रयका अर्थ

छगनलाल जोशी सत्याग्रह आश्रमके मन्त्री हैं। वे बम्बई विश्वविद्यालयमें अर्थ- शास्त्रके 'स्कालर' थे । असहयोग युगमें उस पदको त्याग कर वे आश्रम में आये और तभीसे आश्रमके कामोंमें रहे हैं। उनके नाम कोई १५ दिन हुए, गवाहीका समन आया। यह समन दे जानेवाले सिपाहीने अत्यन्त लापरवाहीका बर्ताव किया। वह पुकारता आया कि 'छगनलाल जोशी कौन है ? ' मैंने इसे सुना। इसलिए मैंने जरा दूरसे ही उँगलीका इशारा करके छगनलाल जोशीको दिखलाया। उसने उन्हें 'समन' दिया। छगनलाल जोशी उसे कहते ही रह गये 'जरा ठहो। मैं समन पढ़ लूं।' मगर इसपर वह यह कह कर चलता बना कि 'लेना हो तो लो । '

जोशीने मुझे समन पढ़ सुनाया। मैंने देखा कि मामलेके बारेमें वे कुछ भी नहीं जानते थे। अब सवाल यह उठा कि करना क्या चाहिए। जानेके लिए न तो उनके पास समय था, ओर न भाड़ेका रुपया ।

समय और रुपये तो आश्रमके पास थे, क्योंकि आश्रमवासी तो अपना सर्वस्व आश्रमको सौंप चुका होता है। आश्रमवासीका प्रत्येक क्षण आश्रमके लिए होता है। आश्रमको मिले द्रव्यका उपयोग दान देनेवालेके बतलाये कामके ही सम्बन्धमें हो सकता है। ऊपर बतलाये गये गवाहीके समनोंके जवाबमें जानेके लिए मुसाफिरीके