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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मजिस्ट्रेटकी लापरवाही और अविवेककी ओर ध्यान तो जाता ही है। देखकर जान पड़ा कि बिना पूछताछ किये ही 'समन' निकाला गया था और निकालनेके बाद भाड़े-भत्तेकी तजवीज नहीं की गई थी। मुझे कहा गया है कि गवाहको भाड़ा-मत्ता देनेका रिवाज यहाँ नहीं है। अगर बात ऐसी हो तो गरीबोंपर कितना मारी जुल्म होता होगा ? पीछे मजिस्ट्रेटने जब वारंट निकाला तब तो गरीबोके प्रति अपनी ऐसी लापरवाही ही सिद्ध की जिसे गुनाह भी कह सकते हैं। उनके पास कोई सबूत नहीं था कि समन मिला या नहीं। जिसे समन भेजें, उसकी सहीकी जरूरत तो मानी ही जाती होगी? इससे तो हम महज कल्पना भर ही कर सकते हैं कि सरकारके इस न्याय विभागमें कितना घोर अन्याय छिपा है ?

अगर छगनलाल उत्कलके गूंगे गरीव प्राणी होते तो यह कौन कह सकता है कि तलोदमें क्या हुआ होता ? उनपर गालियोंकी कितनी वर्षा हुई होती, मजिस्ट्रेटने कैसी लाल आँखें दिखाई होतीं। जिसके पास शिकायत करने के अनेक कारण थे, वह बेचारा गरीब खुद ही गुनहगार ठहराया जाता ।

गरीबोंके प्रति ऐसे विचार रहित उद्धत बर्तावके लिए सरकार जवाबदेह भले ही है, मगर इतना कहे बिना नहीं चल सकता कि जो देशी अफसर जैसा बर्ताव करते हैं, उनके वैसा करनेका कोई कारण नहीं है। जान पड़ता है कि ब्रिटिश राज्यके पहले भी अफसर ऐसा ही बर्ताव करते थे। वे गरीबोंके प्रति सभ्य होना क्यों न सीखें ? अगर वे न सीखें तो स्वेच्छासे गरीब बने हुए सेवक उन्हें विवेकपूर्वक सत्याग्रह करके पाठ सिखलायें ।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २९-४-१९२८

३३३. आश्रमके प्राण

श्री वल्लभभाईको जब मगनलाल गांधीके देहान्तका समाचार मिला तब उन्होंने यह तार दिया था : "आश्रमके प्राण चले गये। " इसमें कोई अतिशयोक्ति न थी। मैं उसके बिना आश्रमके अस्तित्वकी कल्पना नहीं कर सकता था। मेरे अनेक कार्योंक आरम्भका कारण मगनलालके अस्तित्वका ज्ञान था। यदि मेरा किसीसे अभेद था तो मगनलालसे। इस कार्यंसे कहीं उसे दुख न हो ऐसा मय अपने पुत्र और अपनी पत्नीके सम्बन्धमें बहुत बार मनमें आता है; किन्तु मगनलालके सम्बन्धमें ऐसा मय मेरे मनमें कभी नहीं रहा। मुझे उससे कड़ेसे-कड़ा काम लेनेमें संकोच नहीं हुआ। मैंने उसे कई बार कठिन स्थितिमें डाला और उसको उसने चुपचाप सहन कर लिया। उसने कभी किसी कामको तुच्छ नहीं माना ।

यदि मुझमें किसीका गुरु बननेकी योग्यता होती तो मैं मगनलालका परिचय अपने प्रथम शिष्य के रूपमें देता ।