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आश्रमके प्राण

मैंने अपने जीवनमें एक ही बार एक भाईको यह छूट दी थी कि वे मुझे अपना गुरु मान सकते हैं और उसीसे मैं इस गुरुपनसे तृप्त हो गया। इसमें दोष उन भाईका न था, किन्तु मेरी अपनी अपूर्णता ही है, यह मैंने देख लिया। जो गुरु बने उसमें यह कला होनी चाहिए कि वह शिष्यको यदि कोई काम सौंपे तो उसमें उस कामको करनेकी शक्ति भी उत्पन्न करे। यह कला मुझमें नहीं थी और आज भी नहीं है।

किन्तु यदि मगनलाल शिष्य नहीं था तो सेवक अवश्य था। मैं यह मानता हूँ कि किसी भी स्वामीको मगनलालसे अधिक अच्छा और सच्चा सेवक न मिलेगा। यह तो हुआ अनुमान, किन्तु उस जैसा सेवक मुझे तो दूसरा मिला नहीं है। यह अनुभवसे प्रमाणित बात है। यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे सदा श्रद्धालु, नीतिमान, बुद्धिमान और कार्यदक्ष सखा कहो अथवा सेवक, मिले हैं। किन्तु इन सखाओं में अथवा सेवकोंमें मगनलाल सर्वोपरि था ।

मगनलालमें निरन्तर ज्ञान, भक्ति और कर्मकी त्रिवेणी बहती थी। और मगनलालने अपने ज्ञान और भक्तिको कर्मरूप यज्ञमें होम कर सब लोगोंको ज्ञान और भक्तिका सच्चा स्वरूप बताया और उनका प्रत्येक कर्म इस प्रकार ज्ञानमय और श्रद्धामय होने से उनका जीवन संन्यासकी पराकाष्ठाको पहुँच चुका था। मगनलालने सर्वस्वका त्याग कर दिया था। मुझे उसके एक भी कार्य में कभी स्वार्थ दिखाई नहीं दिया। निःस्वार्थ, निष्काम कर्म ही सच्चा सन्यास है यह बात उन्होंने एक बार नहीं, कुछ समयके लिए नहीं, बल्कि अनेक बार और अनेक अवसरोंपर चौबीस वर्ष तक निरन्तर सिद्ध की थी ।

मगनलालके पिताने अपने चारों पुत्रोंको एक-एक करके देशसेवाके लिए मुझे सौंपा था। मगनलाल मुझे १९०३ में मिला था । वह मेरे साथ दक्षिण आफ्रिकामें द्रव्योपार्जनके लिए गया था। मैंने १९०४ में दूसरे मित्रोंको और उसको देशसेवाके लिए गरीबीका जीवन अपनानेके लिए निमन्त्रित किया। उसने शांन्त चित्तसे मेरी बात सुनकर गरीबीका जीवन स्वीकार किया। तबसे लेकर प्राणान्त होनेतक उसका जीवन प्रवाह एक अखण्डित गतिसे चलता आया ।

मैं दिन-प्रतिदिन यह देखता आया हूँ कि मेरा जो 'महात्मापन' मेरी शोभा मात्र है वह दूसरोंपर निर्भर है। मैं तो बहुतसे साथियोंकी शोभासे शोभित हुआ हूँ । किन्तु मेरी इस शोभाको बढ़ानेमें किसी दूसरे मनुष्यने मगनलालसे अधिक भाग नहीं लिया। मेरी प्रत्येक बाह्य और आध्यात्मिक प्रवृत्तिमें उसने ज्ञानपूर्वक मेरा पूरा साथ दिया है। जितनी बातको स्वीकार किया उतनीको कार्यरूप देनेका मगनलाल से बढ़कर प्रयत्न करनेवाला कोई दूसरा व्यक्ति मेरी दृष्टि में नहीं आता। विचार और आचारमें सामंजस्य रखने के लिए मगनलाल चौबीसों घंटे जागरूक रहता था। उसने अपने शरीरको इसी प्रयत्नमें खपा दिया।

यदि इस चरित्र चित्रण में मुझसे जाने या अनजाने अतिशयोक्ति न हुई हो तो यह कहा जा सकता है कि जिस देशमें धर्म इस प्रकार मूर्तिमन्त हो सकता है उस देश अथवा धर्मकी तो जीत ही होगी। इसीलिए मैं चाहता हूँ कि प्रत्येक देशसेवक