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३३५. पत्र : सतीशचन्द्र दासगुप्तको

आश्रम
साबरमती
२९ अप्रैल, १९२८

प्रिय सतीश बाबू,

आपका पत्र मिला। मैंने आपको बता दिया है कि आप मेरी किस तरीके से सहायता करें। आपने आश्रम आनेकी बात कही है। फिर भी अपने पत्रके अन्तमें आपको यह लिखना पड़ा है कि "मुझे लगता है कि मैं शायद एक लम्बे अरसे तक शारीरिक रूपमें सक्षम नहीं हो पाऊँगा। तो फिर नहीं [ आना चाहिए ]; आपकी साधना यही है कि आप अपने आपको शारीरिक रूपसे सक्षम बनायें और इसलिए आपके हकमें यही बेहतर है कि आप जहाँ हैं, वहीं रहें और स्वास्थ्य लाभ करें। मैं तो यह भी सुझाव दूंगा कि आप गिरिडीह चले जायें और निखिलके पास रहें ।

गाँवका विकास करनेके लिए खुद गाँवमें ही बने रहनेका आपका विचार मुझे अत्यन्त भला लगता है। यदि आपको वहां शुद्ध जल मिले और आप मच्छरदानीका प्रयोग करें तो सम्भवतः वहाँ शरीरको किसी भी अन्य स्थानकी अपेक्षा ज्यादा आराम मिल सकता है।

मैंने सुना है कि आप दूधका प्रयोग नहीं करते। यदि यह सही है तो यह बुरी बात है। बिना किसी कारण अपना शरीर क्षीण करनेसे आप कोई हित साधन नहीं करेंगे । सप्रेम, अंग्रेजी (जी० एन० १५९१) की फोटो-नकलसे ।

आपका,
बापू