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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अर्थ होना चाहिए पूर्ण अनुशासन -- - पूर्ण इसलिए क्योंकि तब हम जिस संगठनमें हों उसके नियमोंका, अर्थात् अपने ही नियमोंका स्वेच्छासे पालन करेंगे। क्योंकि आदमी स्वयं ही एक आश्चर्यजनक संगठन है और जो बात उसपर लागू होती है, वही बात उन सामाजिक या राजनीतिक संस्थाओं पर भी लागू होती है, जिनका वह सदस्य है। जिस भांति शरीरके भिन्न-भिन्न अंग एक दूसरेसे बड़े या छोटे नहीं होते हैं, मगर तो भी स्वस्थ शरीरमें सभी अंग दिमागकी आज्ञा स्वेच्छापूर्वक मानते हैं; उसी प्रकार किसी संस्था के कार्यकर्ताओंमें कोई किसीसे बड़ा या छोटा नहीं होता, मगर तो भी सबको स्वेच्छापूर्वक संस्थाके दिमागके अर्थात् उसके संचालकके अधीन होना पड़ता है। जिस संस्थाका कोई संचालक न हो या जिसके कार्यकर्त्ता संचालकसे सहयोग न करें, उस संस्थाको मानो लकवा मार जाता है और वह संस्था समाप्त होने लगती है।

ऊपरके पत्रपर जिन लोगोंने हस्ताक्षर किये हैं, वे यह नहीं समझते कि यदि निश्चित समयपर दफ्तरमें आनेके प्राथमिक नियमका वे ही पालन न करें तो उनका खादी कार्यालय, जिसमें वे भी कार्यकर्ता है, अपना यानी दरिद्रनारायणकी सेवाका काम पूरी तरह नहीं कर सकता। उन्हें महसूस करना चाहिए कि खादी-कार्यालयका ऐच्छिक अनुशासन सरकारी दफ्तरोंके अनिवार्य अनुशासनसे कहीं अधिक सख्त होना चाहिए। अगर खादी-कार्यालयका प्रधान दफ्तर हमेशा समयपर नहीं आ पाता है तो बहुत सम्भव है कि वह दफ्तरमें न होते हुए भी कहीं खादी कार्यमें ही लगा हुआ हो। क्योंकि जबकि मामूली कार्यकर्ताओंके कामका समय निश्चित होता है, प्रधानको आरामका समय ही कभी नहीं मिलता। अगर वह ईमानदार है और अपनी जिम्मेदारीको समझता है, तो उसे खादीको उसका योग्य स्थान दिलाने के लिए दिन- रात काम करना होगा। किसी चलती हुई संस्था में शामिल हो जाना एक बात है और किसी बिलकुल ही नई संस्थाको चलाना, जिसे कि दुनियाकी अपने ढंगकी सबसे बड़ी संस्था बनानेका विचार हो, बिलकुल दूसरी बात है। ऐसी संस्थापर एक नहीं, किन्तु हजारों कार्यकर्ताओंको सावधान रहकर अक्लमन्दी और ईमानदारीसे नजर रखनी पड़ेगी। मौजूदा संस्थाओंमें शामिल होकर और अपने ऊपर कठिनसे कठिन अनुशासनका भार लेकर ही ये कार्यकर्त्ता तैयार होंगे।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, ३-५-१९२८