पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 36.pdf/३४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

३४६. धन्यवाद

मेरे जीवनके सबसे बड़े संकटकी घड़ीमें दूरके और पासके मित्रोंने मुझे अपने संवेदना-सन्देशोंसे विह्वल कर दिया है। यह मेरी मूर्खता थी परन्तु तो भी यह सही है कि मैंने यह कभी नहीं सोचा था कि मगनलालकी मृत्यु मेरी मृत्युसे पहले हो जायेगी। मुझे व्यक्तियों, संस्थाओं और कांग्रेस कमेटियोंकी ओरसे जो समुद्री तार, तार और पत्र मिले हैं, उनसे मुझे बड़ी सान्त्वना मिली है। उनके इन सन्देशोंकी प्राप्तिकी स्वीकृति मैं प्रेषकोंको अलग-अलग नहीं दे पा रहा हूँ; आशा है कि वे मुझे इसके लिए क्षमा करेंगे। मैं उन सबको विश्वास दिलाता हूँ कि उन्होंने जो प्यार मुझपर उँडेला है और मगनलालने जिस मौन साधनासे उन आदर्शोंकी सेवा की है, जिनपर उनकी मेरे समान ही आस्था थी, उनका पात्र बननेकी कोशिश करूंगा ।

[ अंग्रेजीसे ]

मो० क० गांधी

यंग इंडिया, ३-५-१९२८

३४७. पत्र : वीरूमल बेगराजको

आश्रम
साबरमती
४ मई, १९२८

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। आप यह नहीं चाहते कि मैं वकीलकी हैसियतसे आपके प्रश्नोंका उत्तर दूं। क्योंकि शायद मेरा कानून स्वीकार न किया जा सके। परन्तु सामान्य व्यक्तिके रूपमें मुझे ऐसा लगता है कि आपने जिन जायदादोंका जिक्र किया है और जिन परिस्थितियों में उनपर अधिकार किये जानेकी बात की है, उनपर बाबा अथवा उनकी विधवाका कोई अधिकार नहीं है और दूसरे मामले में ब्राह्मणका भी उनपर कोई अधिकार नहीं है ।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत वीरूमल बेगराज

"सिन्धी " कार्यालय

सक्कर

अंग्रेजी (एस० एन० १३२१४) की फोटो-नकलसे ।