३४८. पत्र: पी० तिरुकूटसुन्दरम् पिल्लैको
आश्रम
साबरमती
४ मई, १९२८
प्रिय मित्र,
मैं 'मनुस्मृति 'को जलाना विदेशी वस्त्रको जलानेके समान नहीं मानता । विदेशी वस्त्रको जलाना किसी हानिकारक वस्तुको जलानेके तुल्य है। परन्तु 'मनुस्मृति 'को जलाना ज्यादासे-ज्यादा विदेशी वस्त्रका विज्ञापन जलानेके समान है और बचकाना रोष दिखानेके सिवाय और कुछ नहीं। और फिर मैं 'मनुस्मृति'को बुरी वस्तु नहीं मानता। इसमें बहुत-सी चीजें सराहने लायक हैं। परन्तु इसके मौजूदा रूपमें निस्सन्देह बहुत-सी बुरी चीजें हैं। ये प्रक्षेप मालूम होती हैं। इसलिए जहाँ सुधारक इस पुरानी संहिताकी सारी बढ़िया चीजोंको सैंजोकर रखेगा, वहाँ वह उन सारी चीजोंको जो हानिकारक या सन्देहास्पद महत्ववाली हैं, इसमें से निकाल देगा।
यदि हमें अपने आन्तरिक प्रयत्नोंसे स्वराज्य प्राप्त करना है तो मैं हिन्दू-मुसलमान एकताकी तरह छुआछूतके उन्मूलनको भी स्वराज्य-प्राप्तिकी प्रमुख शर्त मानता हूँ । परन्तु जब अंग्रेज शासक स्वराज्यकी माँगका इसलिए प्रतिरोध करते हैं कि हम अस्पृश्यताका पूरी तरह उन्मूलन नहीं कर सके हैं, तो मुझे उनका प्रतिरोध बनावटी और अवैध लगता है।
हृदयसे आपका,
सिन्दुपोंडरे
अंग्रेजी (एस० एन० १३२११) की माइक्रोफिल्मसे ।