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भक्तिके नामपर भोग

पहली, भक्ति केवल नामोच्चार ही नहीं है किन्तु उसके साथ-साथ सतत यज्ञ- कार्य भी है। आजकल ऐसी मान्यता देखने में आती है कि सांसारिक कामोंका धर्म या भक्तिके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। यह असत्य है । सत्य तो यह है कि इस जगतके सभी कार्योंका सम्बन्ध धर्म और अधर्मके साथ है। कोई बढ़ई केवल धन कमानेके लिए काम करता है और उसमें लकड़ी चुराता है तथा काम बिगाड़ता है। यह अधर्म हुआ। दूसरा बढ़ई परोपकारके लिए काम करता है, मान लीजिए कि रोगीके लिए चारपाई बनाता है, उसमें चोरी नहीं करता, उसमें अपनी सारी शक्ति लगाता है और चारपाई बनाता हुआ रामनाम लेता है। यह धर्मार्थ किया हुआ काम है। यह बढ़ई सच्चा रामभक्त है। तीसरा रामनाम लेनेके निमित्त जानबूझकर या अज्ञानसे बढ़ईगीरी छोड़ बैठता है, अपने और अपने लड़कोंके लिए भीख माँगता है, रोगीके लिए भी कुछ बनाना हो, तो भी कहता है, “मेरे लिये तो रामनाम सच्चा है। मैं न जानूँ दुखीको, न जानूं सुखीको । ” तो वह अज्ञान-कूपमें पड़ा हुआ पामर प्राणी है।

भगवान्‌को मनुष्य केवल वचनसे ही नहीं भजता, किन्तु वचनसे, मनसे और तनसे भजता है। तीनोंमें से अगर एक भी अनुपस्थित हो तो वह भक्ति नहीं है। तीनोंका मेल रसायनके मेलके समान है। रसायनके मेलमें अगर एक वस्तुकी भी मात्रामें फर्क हो तो जो वस्तु बनानी है, वह नहीं बनती। आजके भक्त वाणी के विलासमें ही भक्तिकी परिसीमा समझते हुए दिखाई पड़ते हैं। और इससे अन्तमें भक्त न रहकर भ्रष्टाचारी बनते हैं और दूसरोंको भ्रष्ट करते है।

दूसरी बात है, साकार मनुष्य परमात्माको कैसे और कहाँ भजे । भगवान् तो सभी जगह है। इसलिए उन्हें भजनेका अच्छेसे अच्छा और समझमें आने लायक स्थान तो प्राणी है। प्राणिमात्रमें जो दुःखी हैं, अपंग हैं, असहाय हैं उनकी सेवा भगवद्- भक्ति है। रामनामका उच्चारण भी वही सीखने के लिए है। रामनाम अगर इस सेवाके रूपमें न बदले तो वह निरर्थक है और बन्धन रूप बनेगा जैसा कि गोविन्द भवनवाले भाईके बारेमें हुआ। इस दृष्टान्तसे भक्त मात्र चेत जायें ।

अब बहनोंके लिए दो शब्द । जो पुरुष अपनी पूजा कराता है, वह तो भ्रष्ट होता ही है। किन्तु बहनें क्यों भ्रष्ट हों ? अगर बहनोंको मनुष्यकी पूजा ही करनी है तो आदर्श स्त्रीकी पूजा क्यों न करे ? फिर जीवित व्यक्तिकी पूजा ही किसलिए? ज्ञानी सोलनके वाक्य हृदयमें लिख लेने लायक हैं। “किसी जीवित आदमीको अच्छा नहीं कहा जा सकता।" आज अच्छा है तो कल बुरा है। फिर दम्भीको तो हम पहचान ही नहीं सकते। इसीसे पूजा केवल भगवानकी ही हो सकती है। मनुष्यकी पूजा अगर करनी ही हो तो उसके मरनेके बाद । क्योंकि पीछे हम उसके गुणोंकी पूजा करते हैं, उसकी आकृतिकी नहीं। पुरुषोंको यह बात भोली बहनोंको विनयपूर्वक बार-बार समझानेकी आवश्यकता है।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, ६-५-१९२८