पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 36.pdf/३५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२१
मिल-मालिकोंका लोभ

अन्तिम बात यह है जो महत्वकी दृष्टिसे कम नहीं है कि खादीका महान् लाभ यह है कि उससे अत्यन्त विशाल जन समुदायको शिक्षा दी जा सकेगी, सार्वजनिक उन्नति होगी तथा दिनोंदिन बढ़ती भुखमरी बहुत कुछ दूर की जा सकेगी, जबकि मिलके कपड़ेसे जनसमूहको न कोई रोजगार ही मिलता है और न कोई आर्थिक मदद ही । और एक गज खादी खरीदनेका अर्थ होता है, उस जनसमूहके लिए काफी कुछ काम और पैसा देना, जो रोजगार और पैसेके अभावकी दुहरी चक्कीमें दिनोंदिन पिसता चला जा रहा है। इसलिए हर सच्चे देशभक्तके लिए केवल मात्र खादी ही प्रयोग करने और खादीका ही प्रचार करनेके सिवाय और कोई चारा नहीं है।

[ अंग्रेजी से ]
यंग इंडिया, १०-५-१९२८

३५८. मिल-मालिकोंका लोभ

कुछ दिनों पहले मैंने हिन्दुस्तानी मिलों द्वारा तैयार की गई नकली खादीके जो आँकड़े दिये थे, वे केवल नौ महीनोंके थे। [१] अब दस महीनेके आँकड़े मुझे मिल गये हैं। चकित कर देनेवाले वे आंकड़े नीचे दिये जा रहे हैं : पौण्ड गज अप्रैलसे जनवरी तक तैयार खादी, डूंगरी या खद्दरके आँकड़े

१९२५-२६ २,५८,२२, ४४२ ७,३२,४४, २३८ १९२६-२७ ३, ११, ९५,१६९ ८,५४, ३१,६११

१९२७-२८ ३,७०,३६, २०६ १०,३०,६१,०७२ इन आँकड़ोंसे जाहिर होता है कि उन्होंने १ करोड़ गज हर महीना यानी कमसे-कम २० लाख रुपयेकी खादी हर महीने बनाई •याने जितनी सच्ची खादी पूरे एक वर्ष में बनती है। यह तो स्पष्ट ही गरीबोंके मुंहका कौर छीनना है; और वह भी एक ऐसे आन्दोलनकी मार्फत जो कि भूखों मरनेवाले करोड़ों आदमियोंकी सहायताके लिए शुरू किया गया था। इससे अधिक नीचता और हो ही नहीं सकती। मिल-मालिकोंने अगर इस तरहकी गैरवाजिब और बेईमानीसे भरी प्रतियोगिता द्वारा खादीको खत्म करनेका प्रयत्न करनेके बजाय उसके हितको अपना मानकर उसकी प्रत्यक्ष सहायता की होती, तो वह देशकी सेवा होती। उनकी यह हरकत ठीक उन व्यापारियोंके कामके जैसी है जो नकली घीको असली घी कहकर भोली और मूढ़ जनताके हाथों बेचते हैं। सरकारके समान उन्होंने भी लोगोंके अज्ञानका लाभ उठाकर व्यापार किया है और अगर वे अपना रवैया नहीं सुधार लेते हैं, तो ऐसा काम करनेवाले, अपने दूसरे पूर्ववर्ती लोगोंके समान, देखेंगे कि उनकी धोखा देनेकी यह

३६-२१

  1. देखिए “बहिष्कारपर एक मिल-मालिक ", ५-४-१९२८।