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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हैं। रहनेका प्रबन्ध तो है हि है। आजकल यहांकी आबोहवा अच्छी है। अगर उपवास-शास्त्रज्ञको पिलानीमें बुलाना चाहते हैं तो भी प्रबंध हो सकता है।

मेरा दृढ विश्वास है कि आपको दिल्ली हरगीज़ जाना नहीं चाहिये । पूज्य मालवीयजी और लालाजीको मैं आज ही लिख भेजता हुं । हकीमजी अजमलखांके बारेमें जो स्मारकके लिये मैंने यं० इं० और 'न० जी० में प्रार्थना निकाली है उसके लिये मैं आपसे और आपके मित्रोंसे द्रव्य चाहता हूँ । यदि आप अधिक न देना न चाहें और आप अगर संमति दे दें तो आपने ७५००० दिया है उसी में से बड़ी रकम निकाल दूं। आपका नाम देना न देना आपपर छोड़ दूं । यदि उसमें से कुछ देनेका दिल न चाहे तो वगैर संकोच मुझको लिख भेजें।

मेरे स्वास्थ्यके लिये अखबारों में कुछ पढ़नेसे आप न डरें । ऐसी कोई बात चिताजनक नहीं है। डाक्टर लोग अवश्य डराते हैं, परंतु उसका कुछ प्रभाव मेरे पर नहीं पड़ता है।

आपका
मोहनदास

सी० डब्ल्यू० ६१५३ से।
सौजन्य : घनश्यामदास बिड़ला

१०. सन्देश : गुजरात विद्यापीठमें हुई सभाको

७ फरवरी, १९२८

डाक्टरोंकी राय मानकर मैं आजकी सभामें नहीं आ सका हूँ। आचार्य कृपलानी जा रहे हैं; पर मेरा खयाल है कि वे वास्तव में विद्यापीठसे जा नहीं रहे हैं, क्योंकि उनकी आत्मा तो यहीं रहेगी। अवसर आने पर वे यहाँ व्याख्यान देने अवश्य आयेंगे । आवश्यकता पड़ने पर वे इस नौकाको सँभालनेका वचन देकर जा रहे हैं। मैं जबसे दक्षिण आफ्रिकासे आया हूँ मेरा उनसे सम्बन्ध बना हुआ है। मैं तो यही चाहता हूँ कि सभी उनकी त्यागवृत्ति, सादगी और कर्त्तव्यपरायणताका अनुकरण करें।

[ गुजरातीसे ]
प्रजाबन्धु, १२-२-१९२८



१. देखिए खण्ड ३५ पृष्ठ ४४९-५० और ४९४-५ ।

२. गांधीजीकी अनुपस्थितिमें अम्बालाल साराभाईने सभाको अध्यक्षताकी थी और यह सन्देश पढ़ा था।