नहीं है। आप जहाँ हैं वहीं उन आदर्शोंको क्यों प्रस्तुत नहीं करती, जिनको लेकर आश्रम चल रहा है? तब आश्रम आपको अपनी जाहिरा सीमाओंके बिना सुलभ हो जाता है और आप उन आदशोंमें जितना चाहें उतना जोड़ सकती हैं, या उनमें जितना चाहें उतना सुधार कर सकती हैं।
हृदयसे आपका,
३, सुनहरी बाग
नई दिल्ली
अंग्रेजी (एस० एन० १३०७२) की फोटो-नकलसे ।
२५. पत्र : गिरधारीलालको
आश्रम
साबरमती
१२ फरवरी, १९२८
प्रिय लाला गिरधारीलाल,
आपका पत्र मुझे पढ़कर सुना दिया गया है। मेरे स्वास्थ्यके बारेमें कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिए। जबतक ईश्वर इस शरीरके जरिये कुछ काम कराना चाहता है तबतक शरीर सभी कठिनाइयों और कसौटियोंको सहकर भी बना रहेगा। मैं डाक्टरोंकी बात पूरी तरहसे मान रहा हूँ और पूरा आराम कर रहा हूँ। हालांकि खुद मुझे उसकी कोई जरूरत नहीं महसूस होती है। मैं जानता हूँ कि जब भी मैं चाहूँगा आप, आपके दूसरे कार्यक्रम चाहें कितने ही जरूरी क्यों न हों, आ जायेंगे। इस विचार मासे कितनी राहत मिलती है कि मुझे मदद देनेको तत्पर मित्र मेरे पास मौजूद है। अभी फिलहाल तो मेरे पास परिचर्या करनेवाले काफी मित्र हैं। ऐसा लगता है डाक्टरोंका भी ऐसा खयाल है कि मैं बराबर स्वास्थ्य लाभकी दिशामें प्रगति कर रहा हूँ ।
हृदयसे आपका,