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२९. सिन्धमें बाढ़ सहायताका काम

प्रो० ना० २० मलकानीने सिन्धके संकटके सम्बन्धमें, जो वास्तवमें गुजरातके संकटसे तनिक भी कम गम्भीर नहीं है, अपनी टिप्पणियोंकी जो पहली किस्त' भेजी है, उसे मैं यहाँ सहर्ष प्रकाशित कर रहा हूँ। लेकिन जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ, गुजरातकी ओर सबसे ज्यादा लोगोंका ध्यान केवल इसी कारण नहीं गया कि वहाँ बहुत बड़ी संख्या में दानी लोग रहते हैं, बल्कि इसलिए भी गया कि वहाँ सरदार वल्लभभाई पटेलके नेतृत्वमें कार्यकर्त्ताओंकी एक सेना राहत कार्यको हाथमें लेने और व्यवस्थित ढंगसे करनेके लिए तत्पर और कृतसंकल्प थी । सिन्धको उड़ीसासे कम कष्ट नहीं उठाना पड़ा; क्योंकि सिन्धमें भी ऐसा कोई संगठन खड़ा नहीं किया जा सका। किन्तु जो कष्ट दूर किया जा सकता है उसे दूर करनेमें संगठनको कमीका बहाना नहीं चल सकता । जनताको जानना चाहिए कि प्रो० मलकानी स्वयं केन्द्रीय समितिकी देखरेखमें सहायता पहुँचानेका प्रबन्ध कर रहे हैं। मुझे आशा है कि केन्द्रीय समिति, उन्हें जितनी भी सहायताकी जरूरत होगी, दे रही होगी ।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १६-२-१९२८

३०. चिट्ठी-पत्री

पूर्वोक्त पत्रको मैं और नहीं तो केवल इसीलिए प्रकाशित किये बिना नहीं रह सकता कि उसमें एक सूक्ष्म वाक्चातुर्य और व्यंग्य है। मेरा दावा है कि मैं एक सनातनी हिन्दू हूँ। मैं जानता हूँ कि मेरे इस दावेका अक्सर खण्डन किया गया है, इसके बावजूद यह मेरे लिए दुर्भाग्यकी बात है कि "हिन्दुस्त्व पर कलंक" शब्द प्रयोग का दायित्व मेरे ऊपर है। ईसाई धर्मकी शिक्षाकी भावनाके विपरीत होनेके बावजूद भी यदि युद्धकी प्रथा ईसाई समाजके लिए इस कारणसे कलंक कही जा सकती है,क्योंकि ईसाई देशोंमें युद्ध आम चीज है, तो बहुतसे हिन्दुओंके इस तर्कके बावजूद कि सच्चे हिन्दू धर्ममें अस्पृश्यताके लिए कोई स्थान नहीं है, अस्पृश्यता हिन्दुत्वके लिए कलंक मानी जा सकती है। यदि इस 'कलंक' शब्दके प्रयोगले कुछ हिन्दुओंको दुःख होता है तो यह शुभ लक्षण है। जब इससे अधिकांश हिन्दुओंको दुःख होने

१. यहाँ नहीं दी जा रही है।

२. एस० डी० नादकर्णीका ९ फरवरीका पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पत्र लेखकने 'हिन्दुत्व पर कलंक' शब्दोंपर आपत्तिकी थी जिनका प्रयोग गुजरात विद्यापीठके पुर्नसंगठनके एक प्रस्ताव अस्पता के सिलसिले में हुआ था। उन्होंने सुझाव दिया था कि उसे 'मानवताका कलंक' कहा जा सकता था था बिलकुल हटाया जा सकता था।