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३५. अजमलखाँ स्मारक

पाठक जानते हैं कि यह स्मारक दिल्लीके राष्ट्रीय मुस्लिम विद्यापीठके रूपमें है। उक्त विद्यापीठ केवल मुसलमानोंके लिए नहीं है। हिन्दू भी उसमें जा सकते हैं । उसमें अध्यापक भी केवल मुसलमान नहीं हैं; हिन्दू और ईसाई भी हैं। किन्तु जैसे गुजरात विद्यापीठमें मुख्यतः हिन्दू विद्यार्थी ही होते हैं और कोई मुसलमान शायद ही आता है, वैसे ही दिल्लीके जामिया मिलियामें भी शायद ही कोई हिन्दू विद्यार्थी आता है। यदि गुजरात विद्यापीठमें मुसलमान विद्यार्थियोंके न आनेका दोष उसके संचालकोंका हो तो मुस्लिम विद्यापीठमें भी अधिक हिन्दू विद्यार्थी न जानेका दोष विद्यापीठके संचालकोंको दिया जा सकता है। आजकलके अस्थिर वातावरणमें दोनों संस्थाओंके संचालक और अध्यापक द्वेषभाव रहित और परस्पर उदारचेता हों तो हमें ईश्वरका उपकार मानकर सन्तोष करना चाहिए। मुझे तो विश्वास है कि जैसे भविष्यमें गुजरात विद्यापीठ स्वराज्यकी प्राप्ति और रक्षामें हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य इत्यादि रचनात्मक कार्योंको सम्पन्न करनेमें बड़ा हिस्सा लेगा वैसे ही दिल्लीका यह विद्यापीठ भी इन कार्यों में बड़ा हिस्सा लेगा। मेरी यह भविष्यवाणी सच्ची निकले या न निकले किन्तु यदि हकीम साहबके प्रति हमारा कोई कर्त्तव्य हो और उनके स्मारकको कायम रखने में हमारी प्रतिष्ठा हो तो हम सभीको इस कोषमें यथाशक्ति रुपया देना चाहिए। इस कोषमें चींटीसे भी अधिक मंद गतिसे रुपया आ रहा है। इससे मुझे यह लगता है कि गुजरातके लोग दूसरे कोषोंकी तरह इस कोषमें दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। यह भूल है। मैं यह कह देना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ। जो लोग हिन्दुओं और मुसलमानोंमें एकता स्थापित कराना चाहते हैं उनको इस कोष में अवश्य हाथ बँटाना चाहिए। किसी लोकप्रिय कोषके लिए धन इकट्ठा करनेका मन सभीका होता है,किन्तु एक अप्रिय परन्तु श्रेयस्कर कोषमें धन देनेके सम्बन्ध में लोग, यदि कोई उनको जाग्रत न करे तो, उदासीन रहते हैं। मेरी यह प्रार्थना इसी उदासीन वर्गसे ही है। 'नवजीवन 'के पाठक सदा लोकप्रिय कार्योंको ही प्रोत्साहन देते हों, ऐसा नहीं है। उन्होंने अप्रिय किन्तु प्रजाकी शक्ति बढ़ानेवाले और समाजका कल्याण करनेवाले कार्योंमें भी अपना हिस्सा धनके रूपमें या अन्य प्रकारसे अच्छी तरह दिया है। यहाँ भी उनको अपनी इस उदार नीति और विवेक-शक्तिका उपयोग करनेकी आवश्यकता है। जामिया मिलिया दो प्रकारकी विरोधी शक्तियोंके बीच पिस नहीं जाना चाहिए । यह संस्था वर्तमान द्वेषपूर्ण वातावरणकी पोषक नहीं है, इसलिए सामान्य मुसलमान वर्ग उसके सम्बन्धमें उदासीन दिखाई देता है और हिन्दू भी ऐसा सोचकर कि इसका पोषण मुसलमानोंको ही करना चाहिए उसके विषय में तटस्थ रहें तो जामिया मिलिया अधूरा ही रह जायेगा और इस तरह हकीमजीका स्मारक भी अधूरा कहलायेगा। इस स्थितिको न आने देना स्वराज्यवादी हिन्दुओं और मुसलमानोंका विशेष कर्त्तव्य है। मुझे आशा है कि 'नवजीवन' के पाठक इस धर्मका