पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 36.pdf/७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४७
पुरानी याद ताजा हो गई

उन्हें मित्रोंने वकीलोंका बचाव लेनेकी सलाह दी और कहा कि अब तो सभी वकीलकी सलाह लेते हैं और कोई इसके लिए उनपर उँगली नहीं उठाता। मगर ये असहयोगी तो अपनी बातपर अटल रहे। उन्हें इसकी परवाह नहीं थी कि दूसरे क्या करते हैं। वे तो सिद्धान्ततः असहयोगी थे और इसलिए विवेकके ध्यानसे दी गई यह सलाह उन्होंने नहीं सुननी चाही। यरवदा जेलमें श्रीयुत देवसे मेरा परिचय हुआ। उन्होंने श्रीयुत दास्तानेके साथ-साथ एक सख्त उपवास शुरू किया था, जिससे उन्हें रोक सकना मेरे लिये बहुत मुश्किल हुआ था । अपने विश्वासपर अटल रहनेके लिए इन मित्रोंको बधाई देता हूँ। क्योंकि मुझे पूरा विश्वास है कि ऐसी ही श्रद्धासे स्वराज्यकी नींव पड़ेगी। अपने परम पवित्र त्यागसे निस्सन्देह वे स्वराज्यको और भी नजदीक ले आये हैं । कोई यह न सोचे कि राष्ट्र निर्माणमें ऐसे छुटपुट व्यक्तियोंके त्यागोंका कोई स्थान नहीं है या इनसे कोई बड़ा नतीजा नहीं निकलता। सचमुच ही, अन्तमें असर तो पवित्रतम त्यागका ही पड़ेगा। यह तो स्वराज्यकी सबसे पक्की और पवित्र नींव होगी ।

निःसन्देह लेख तो मौजूदा सरकारके प्रति असन्तोष बढ़ाने के लिए ही लिखा गया है। इस प्रकारका असन्तोष बढ़ाना सभी राष्ट्रवादियोंका अनिवार्य कर्त्तव्य है। मेरे खयालसे हरएक कांग्रेसवादी वर्तमान सरकारका कट्टर दुश्मन है। हमें व्यक्तियोंसे कोई झगड़ा नहीं है, किन्तु अगर हम स्वराज्यके लायक हैं तो वर्तमान सरकारको हर न्यायोचित और शान्तिमय साधनसे नष्ट करना हमारा कर्त्तव्य है। विधान-सभामें 'स्टेच्यूटरी कमीशन' पर हालमें जो बहस हुई थी और जिसमें सभी दल शामिल हुए थे और जो बहस सदा उनके यशका कारण होगी, वह असन्तोषका पदार्थपाठ थी। असन्तोषके पक्षमें अपना मत देनेके लिए दिल्ली तक जानेमें स्वर्गीय हरचन्द राय विशनदासने अपनी जानकी बाजी लगा दी। असन्तोष उत्पन्न करनेकी दृष्टिसे तो रोज ही श्रीयुत देवके लेखसे भी अधिक जोरदार लेख मिला करते हैं। उन्होंने तो हिन्दू- मुसलमानोंसे युक्तियुक्त यह अपील ही की है कि देशको गुलाम बनाये रखनेवाली सरकारका संरक्षण अस्वीकार करो और अगर लड़े बिना चले ही नहीं तो न्यायपूर्वक और नपूर्वक धर्मयुद्ध लड़ो। मैंने वह लेख अनेक बार पढ़ा है और मैं भले ही उनकी जैसी भाषा न लिखूं, किन्तु उनकी दलीलोंमें से एक भी ऐसी नहीं है, जिसे मैं अपना न सकूँ । पक्षपातपूर्ण आलोचक महाभारतसे उद्धृत श्लोकोंके शब्दों पर भले उज्ज्र करें किन्तु सन्दर्भके साथ पढ़नेपर उसका अर्थ स्पष्ट हो जायेगा । हमारा कोई राजा नहीं है। कानूनके पवित्र नामके भेषमें हमपर शासन हो रहा है। शासक बहुत-से हैं । एक आता है, दूसरा जाता है। शासन कायम रहता है। मगर यह भ्रष्ट, बुरा, आत्माको कुचलनेवाला शासन चाहे जैसे हो समाप्त करना ही पड़ेगा । श्रीयुत देव और उनके जैसे वे लोग जो इसके लिए कीमत देनेको तैयार हों, उन्हें वही मूल्य चुकाना होगा जो उनके अहिंसाके सिद्धान्तसे मेल खाता हो । वे सच्चे कानूनका शासन स्थापित करना चाहते हैं, कुछ दूसरे लोगोंको मार कर नहीं, चाहे वे कितने ही क्रूर और विपथगामी क्यों न हों, किन्तु जरूरत पड़े तो इस कोशिश में स्वयं अपने प्राण गँवाकर | स्वराज्यकी उनकी अपनी कल्पनाके ही अनुसार यह मर्यादा आवश्यक है। इसलिए यह समझना