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५३. पत्र: सतीशचन्द्र दासगुप्तको

आश्रम
साबरमती
२५ फरवरी, १९२८

प्रिय सतीशबाबू,

आपका पत्र मिला। मुझे यह तो मालूम था कि कांग्रेस समितियाँ करीब-करीब सो रही हैं। आपने सूचना दी है कि इसके प्रति सन्देह जगाये बिना, यदि आप उनमें जान डाल सकें, तो यह एक बहुत बड़ी बात होगी ।

यह विदेशी वस्त्र-बहिष्कार प्रदर्शन क्या है ? और ये दस हजार स्वयंसेवक क्या हैं? मैं देखता हूँ कि डा० राय भी इसमें रहे हैं। कृपया मुझे इस आन्दोलनका गूढ़ अर्थ समझाइये ।

यदि यह आपको अनुकूल पड़ता है, तो इसमें मुझे कोई एतराज नहीं है कि आपने तृतीय श्रेणीमें सफर किया ! मुझे प्रसन्नता है कि आप निखिलको कुनेकी पद्धतिसे स्नान करवा रहे हैं। बोसकी राय क्यों नहीं ले लेते ? वह जल-चिकित्साके विशेषज्ञ हैं। आपको मालूम है कि बहू-बाजारमें स्थित उनकी संस्था में मैं अपने इलाज के लिए जाया करता था। उस समय बोस वहाँ नहीं थे; परन्तु मजमूदार तब मेरी मालिश किया करते थे और मुझे बिजलीका स्नान कराया करते थे। जहाँ विशेषज्ञ असफल हो जाते हैं, वहाँ प्रायः साधारण उपाय सफल हो जाते हैं।

आपने संकर शब्दका जो अर्थ किया है वह मौलिक है। परन्तु वर्णकी मेरी परिभाषासे वह पूरी तरह मेल खाता है। मेरी परिभाषा आखिरकार अक्षरशः वेदकी परिभाषा है। तीसरा अध्याय निस्सन्देह 'गीता'का मुख्य अध्याय है। पहले दो अध्याय भूमिकाके रूपमें हैं और अन्तिम पन्द्रह भाष्यके रूपमें हैं। मुझे ध्यान आता है कि मैंने आपको बताया था कि हम आश्रममें कुछ समयसे 'गीता'का प्रतिदिन पाठ करते हैं। सारी 'गीता' हर पखवाड़े में एक बार समाप्त हो जाती है। अध्याय ७, और ८, १२ और १३, १४ और १५ तथा १६ और १७ एक एक दिनमें दो-दो करके पढ़े जाते हैं ।

हृदयसे आपका,

अंग्रेजी (एस० एन० १३०८५) की फोटो-नकलसे ।