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७८. पत्र : वसुमती पण्डितको

आश्रम, साबरमती
१५ जुलाई, १९२८

चि॰ वसुमती,

तुम्हारे पत्र मिले। तुम्हें वहाँ जिन समस्याओंका कोई हल न सूझे उन्हें तुम अपरिहार्य मानकर सह लेना। 'गीताजी' का कौन-सा श्लोक हमें ऐसा करनेकी सीख देता है – सोचना और यदि मिल जाये तो मुझे लिखना। तुम्हें जब-जब कठिनाइयों का सामना करना पड़े तब-तब 'गीताजी' का सहारा लेना। ऐसा करनेसे वह तुम्हारे लिए कामधेनुके समान सिद्ध होगी। मैं तो आज हूँ और कल नहीं किन्तु 'गीताजी' तो मृत्युपर्यन्त तुम्हारा साथ देगी और उसके बादकी यात्रामें भी वह तुम्हारे लिए पाथेयका काम देगी। जो भी अध्यापक या बालक तुम्हारे प्रति समुचित बरताव न करे उसके प्रति धीरज और प्रेमपूर्ण व्यवहार करना; इस तरह तुम उनका मन जीत सकोगी। विद्यावतीजी जितना समय दें उतने ही समयमें जितना सिखाया जा सकता हो उतना सिखाकर सन्तुष्ट रहना। तुम चरखेके बदले तकलीका उपयोग क्यों नहीं करती? हम जैसे लोगोंके लिए चरखा कमाईका साधन नहीं बल्कि यज्ञ है। यह बात विद्यावतीको समझाना। जिस तरह यदि कोई तुम्हारी आलोचना करे, फिर वह सच्ची हो या झूठी, तो भी तुम्हें अपने मनमें रोष नहीं करना चाहिए और न उसका प्रत्युत्तर ही देना चाहिए; उसी प्रकार मेरे बारेमें किसी तरहकी आलोचना सुननेको मिले तो भी तुम्हें रोष नहीं करना चाहिए।

यहाँ अच्छी वर्षा हो रही है। यों कहा जा सकता है कि हमारे चाहते ही वर्षा होने लगती है। महादेवको उठ खड़े होनेमें अभी समय लगेगा किन्तु वह दिन-दिन स्वस्थ होता जा रहा है।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती (सी॰ डब्ल्यू॰ ४८४) की फोटो-नकलसे।

सौजन्य : वसुमती पण्डित