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७९. पत्र : मणिलाल और सुशीला गांधीको

आश्रम, साबरमती
१५ जुलाई, १९२८

चि॰ मणिलाल और सुशीला,

तुम दोनोंके पत्र मिले। आजकल मुझे समय ही नहीं मिलता इसलिए मैं अधिकतर पत्र सुबह तीनसे चारके बीच लिखवा देता हूँ और यह मेरे लिए सुविधाजनक भी है। मुझे अधिकांश समय भोजनालयके लिए देना पड़ता है। यह काम मुझे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और आवश्यक लगता है, इसलिए मैं इसमें समय देता हूँ। आजकल सम्मिलित भोजनालयमें लगभग सौ व्यक्ति भोजन करते हैं। किन्तु फिर भी भोजनके समय तनिक भी शोरगुल नहीं होता और पूर्ण शान्ति बनी रहती है। अगर इन दिनों तुम लोग यहाँ होते तो आश्रमको बहुत बदला हुआ पाते। चि॰ छगनलालके पास जो दसेक हजार रुपये थे वे उसने दे दिये हैं और अब वह सही मानीमें अपरिग्रहव्रतका पालन कर रहा है। इस त्यागमें चि॰ काशीकी ओरसे भी पूरा सहयोग मिला। यह कुटुम्ब अब सम्मिलित भोजनालयमें भोजन करने लगा है। भाई महादेवके पास चार हजार रुपये थे; उन्होंने भी यह रकम दे दी है। अपना अलग खाना बनाने वाले जो लोग बाकी रह गये हैं वे भी आगामी कार्तिक सुदी १ तक अलग खाना बनाना बन्द कर देंगे। अब ऐसे थोड़े ही लोग बचे हैं।

हरिलाल यहाँ एक दिन रह गया। रामदास और रसिक अभी बारडोलीमें ही हैं। 'गीताजी' का पाठ रोज होता है। हर चौदहवें दिन अठारह अध्याय पूर्ण हो जाते हैं।

'आत्मकथा'[१] में मैंने रुस्तमजीके मुकदमेके बारेमें जो कुछ लिखा है वह प्रेमवश ही लिखा है। मैंने अन्य नाम नहीं दिये किन्तु उक्त नाम इस विचारसे दिया है कि जबतक 'आत्मकथा' का महत्त्व बना रहेगा तबतक इस नामकी कीमत भी आंकी जाती रहेगी। कुमारी श्लेसिनके[२] बारेमें तुमने जो लिखा है उसे मैं समझता हूँ। क्या वह आधी पगली नहीं है? उसने खुद मुझे मूर्खतापूर्ण पत्र लिखा है। यदि तुम अब भी मेरी बात न समझ सके हो तो लिखना।

बापूके आशीर्वाद

[पुनश्च:]

दुबारा नहीं पढ़ा है।

गुजराती (जी॰ एन॰ ४७४१) की फोटो-नकलसे।

 

  1. भाग ४, अध्याय ४७; यंग इंडियाके १२-४-१९२८ के अंकमें प्रकाशित।
  2. सोंजा श्लेसिन; आत्मकथा देखिए भाग ४ अध्याय १२; तथा खण्ड ३६ पृष्ठ ४९२ भी।