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८०. पत्र : घनश्यामदास बिड़लाको

१६ जुलाई, १९२८

भाई घनश्यामदासजी,

आपका प्रेमल पत्र मीला है। बात तो यह है कि उस पत्रकी भाषा भिक्षापात्र सामने रखनेसे मुझको और रोकेगी। परन्तु भिक्षार्थीको ज्ञान कहांसे, इसलिये जब मैं विवश हो जाउंगा तब द्वार पर खड़ा हो जाउंगा।

बारडोलीका समझौता हो जायगा ऐसा कुछ अब प्रतीत होता है।

आपका,
मोहनदास

सी॰ डब्ल्यू॰ ६१६१ से।

सौजन्य : घनश्यामदास बिड़ला

८१. पत्र : हेमप्रभा दासगुप्तको

१७ जुलाई, १९२८

प्रिय भगिनी,

आपका पत्र मीला। यदि आप शांत सचमुच है तो लड़की आपकी शांतिमें से शांति ले लेगी।

निखिलका प्रश्न गूढ़ है। यदि आपने देहका मोह छोड़ दीया है तो निखिलको हरगीज़ धोका न दे। वह मांसकी दवा नहिं खाना चाहे तो उस पर बलात्कार न कीया जाय। यदि वह दाकतरके समझाने से भी पीना चाहे तो उसे न रोका जाय। केवल निखिल पर इस बातको छोड़ दी जाय। परंतु यदि आपहि के दिलमें इस बारेमें कुछ शंका है तो निखिलको उस दवाको लेनेके लीये समझाना आपका धर्म हो जाता है। शास्त्र के नामसे जिसकी पहचान कराई जाती है उन्हीं पुस्तकोंमें लीखा है कि दवाके नामसे मद्य मांसादि लेने में कोई हानि नहिं है। निरामिषाहारि भी ऐसे बहोत है जो दवाके नामसे मांसादि लेने में कोई दोष नहिं समझते हैं। आवेशमें आकर कुछ भी न करें।

बापूके आशीर्वाद

जी॰ एन॰ १६५८ की फोटो-नकलसे।