आशा है, बर्मामें नजरबन्दीके दौरान आपको जो बीमारी हो गई थी, उससे अब आप पूरी तरह छुटकारा पा गये होंगे। पण्डित मोतीलालजी के बारेमें आपका तार[१] मिल गया है। मोतीलालजी खुद ही इस सम्मानको स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। मैं उनके विचारसे सहमत हूँ, और 'यंग इंडिया' के आगामी अंकके लिए मैंने एक लेख भी तैयार कर लिया था, जिसे श्रीयुत सेनगुप्तकी सहमतिसे छापनेवाला था। किन्तु मेरे तारके उत्तरमें उन्होंने जो-कुछ लिखा, उसके आधार पर मैंने लेखको रद कर दिया और जबतक बंगालके भाई नहीं चाहेंगे तबतक मैं चुनावके विषय में 'यंग इंडिया' में या अन्यत्र कुछ लिखनेवाला नहीं हूँ।
हृदयसे आपका,
कलकत्ता
अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १३६४१) की फोटो-नकलसे।
८५. पत्र: शौकत अलीको
सत्याग्रहआश्रम, साबरमती
१८ जुलाई, १९२८
आपका पत्र अभी-अभी मिला। अपनी बहन और उनकी मृत्युके बारेमें अगर आपने बहुत अलंकृत भाषामें लिखा होता तो आपके दुःखकी गहराईका उतना एहसास न होता जितना कि इन सीधे-सादे शब्दोंसे होता है। वे आपकी बहन ही नहीं, जरूरत पर काम आनेवाली साथिन भी थीं। मगर मैं जानता हूँ कि आपसे यह कहनेकी जरूरत नहीं है कि आप ईश्वर पर भरोसा रखें, उसकी दयाका सहारा लें। आपमें स्वयं ही उसके प्रति पर्याप्त आस्था है और इसलिए इसके लिए आपसे किसीको कुछ कहने की जरूरत नहीं है। अंग्रेज अधिकारियोंकी भर्त्सना करते हुए आपने जो-कुछ कहा है, उससे हालाँकि मैं पूर्णतः सहमत हूँ, लेकिन साथ ही मृत्यु-जैसे प्रसंग पर भी नवाबने जो हृदयहीनता दिखाई है, उसके लिए आपकी तरह उसे क्षमा करनेकी उदारता मैं नहीं दिखा सकता।[२]
मुझे उम्मीद है कि उच्च न्यायालय में आपका जो मुकदमा चल रहा है, उसमें आपकी जीत होगी।