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पत्र: शौकत अलीको

 

जामियाके सम्बन्धमें आपकी बात[१] मैं समझता हूँ। लेकिन मुझे लगता है कि अगर डॉ॰ जाकिरहुसैनको जामियाके मामले में अपनी समझके अनुसार काम करनेकी पूरी छूट नहीं दे दी जाती तो संस्था बरबाद हो जायेगी। खतरे तो दोनों रास्तोंमें हैं। अगर आप इस बड़ी नियन्त्रण समितिको, जो इतनी बड़ी है कि उसे सँभालना मुश्किल है, बरकरार रखते हैं तो फिर डॉ॰ जाकिरहुसैन और उनके सहयोगियोंको फाकाकशी करनी पड़ेगी। अगर आप इसका नियन्त्रण एक ऐसी छोटी समितिको सौंप देते हैं जिसके सदस्योंसे डॉ॰ जाकिरहुसैन जरूरत होने पर आसानी से सम्पर्क स्थापित कर सकते हों और जिसकी बैठकें भी सुगमतासे बुला सकते हों तथा अगर आजके अस्पष्ट संविधानके बजाय स्पष्ट और पूर्णतः असहयोगवादी संविधान अपना लिया जाता है तो कठिनाइयों पर पार पा लेनेकी कुछ उम्मीद की जा सकती है। अब आप तय कीजिए कि इन दोनों रास्तोंमें से कौन-सा अच्छा है या अगर आप सोच सकते हों तो कोई तीसरा रास्ता ही सोचिए। और अजमल-कोषकी रकम, जो अभी तो बहुत छोटी ही है, तबतक जामिया के लिए नहीं दी जा सकती जबतक कि उसकी स्थिति मजबूत नहीं हो जाती और उसे ऐसा रूप नहीं दे दिया जाता जो सबके लिए स्वीकार्य हो। डॉ॰ अन्सारी इस कामसे यहाँ आनेवाले थे और अगर वे आ सकते तो हम तीनोंका साथ बैठकर बातचीत कर लेना ज्यादा अच्छा रहता। मगर अब तो मैं आपको डॉ॰ अन्सारीके बिना केवल इस विषय पर मुझसे बातचीत करनेके लिए अहमदाबाद आनेकी तकलीफ नहीं देना चाहूँगा। आपने अपना विचार बिलकुल साफ शब्दोंमें बता दिया है, और मैं यह भी उम्मीद नहीं करता कि आपके निर्णयको मैं किसी तरह प्रभावित कर सकूँगा। इसके अलावा, मैं जानता हूँ कि आप दिल्लीमें जो-कुछ भी करेंगे वह अपनी बुद्धि और अपनी मान्यताके अनुसार पूरी तरह सोच-समझकर ही करेंगे।

मोतीलालजी के बारेमें आपकी बातें पढ़कर दुःख होता है।[२] मैं इस सम्बन्धमें कुछ कहने में तो असमर्थ हूँ, लेकिन यह महसूस करता हूँ कि वे जान-बूझकर तो कोई उलटा-सीधा निर्णय नहीं ले सकते। क्या आप इस सम्बन्ध में मुझसे कुछ करनेकी अपेक्षा रखते हैं या चाहते हैं कि कुछ करूँ? अगर हाँ, तो फिर यह कहने में संकोच

 

  1. शौकत अलीने लिखा था: "मैं समझता हूँ, अजमल-स्मारकके लिए जो पैसा इकट्ठा किया जा रहा है, वह साराका-सारा जामियाको दे दिया जाये, ताकि उसका कर्ज चुकाया जा सके और जबतक उसके खर्चके लिए हमें बड़ी बड़ी रकमें नहीं मिल जातीं तबतक इसी पैसे से उसका खर्च भी चलाया जा सके। जामिया बरबाद हो रहा हो और हम पैसेको पकड़कर बैठे रहें, यह कैसी बात होगी? मैं चाहता हूँ कि जामिया जिन्दा रहे, क्योंकि इसके बिना हमारे पास अपने बच्चोंको शिक्षा देनेके लिए कोई संस्था नहीं होगी।..."
  2. शौकत अलीने लिखा था कि "स्ष्टतः पण्डितजी के रवैयेमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है और वे चाहते हैं कि मद्रासका प्रस्ताव पास हो जाये और मुसलमान विधान मण्डलोंमें स्थान सुरक्षित करवानेका आग्रह छोड़ दें तथा सिन्धके पृथक्करणके बारे में भी अपनी मांग छोड़ दें। ...मुझे लगता है कि यदि पण्डितजी महासभाका फार्मूला अपनानेका आग्रह रखेंगे तो मुसलमान कांग्रेसियोंकी स्थिति बड़ी अटपटी हो जायेगी।