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९३. पत्र : टी॰ प्रकाशमको

सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
२० जुलाई, १९२८

प्रिय प्रकाशम्,

आपका पत्र पढ़कर तो मैं दंग रह गया। इससे स्पष्ट है कि सार्वजनिक कारोबारके बारेमें हम दोनोंकी मान्यताओंमें आकाश-पातालका अन्तर है। एक लोकसेवी व्यक्ति द्वारा किसी सार्वजनिक सौदेके बारेमें दी गई व्यक्तिगत गारंटीका जो अर्थ आप लगाते हैं वह मेरे लिए तो बिलकुल नया है। दक्षिण आफ्रिका और भारतमें मैंने जो-कुछ देखा-जाना है, वह आप जो-कुछ कह रहे हैं, उससे सर्वथा भिन्न है। मैंने तो यही देखा है कि यदि किसी लोकसेवी व्यक्तिने किसी सार्वजनिक सौदेके बारेमें मौखिक आश्वासन भी दे दिया और बादमें वह सौदा उसकी उन अपेक्षाओंके अनुरूप साबित नहीं हुआ जिनके आधार पर चरखा संघ-जैसी किसी सार्वजनिक संस्थाने उसमें अपना पैसा लगाया है तो फिर उस व्यक्तिने अपनी जेबसे सारा नुकसान चुका दिया है। अभी पिछले ही दिनों एक व्यक्तिने अपनी जेबसे २१,००० रुपयेका नुकसान भरा, जिससे वह आर्थिक दृष्टिसे लगभग बरबाद हो गया। उसका दोष यह था कि न केवल उसकी ईमानदारी पर बल्कि उसकी निर्णय-बुद्धि पर भरोसा करके उस रकमकी देख-रेखका भार उसे सौंपा गया था। लोकसेवी जनों और उनके कार्य-व्यवहारके मार्ग-दर्शनके लिए जो नियम आपने सुझाये हैं, यदि उन्हींके अनुसार लोग चलें तो मेरे विचारसे किसी प्रकारके विस्तृत सार्वजनिक कारोबारकी कोई सम्भावना ही नहीं रह जायेगी।

जब हमारी मान्यताओंमें ही मूलभूत अन्तर है तब फिर आपके द्वारा उठाये तथ्य-सम्बन्धी प्रश्नों पर विचार करना बेकार है। हाँ, यदि आप सार्वजनिक व्यवहार और सार्वजनिक प्रामाणिकता सम्बन्धी अपने विचारोंसे सहमत हो सकें तो फिर मैं आपके बताये तथ्योंपर प्रसन्नतापूर्वक विचार करनेको तैयार हूँ। तब यदि कुछ ऐसा पता चलेगा कि तथ्योंको ध्यानमें रखते हुए आपके साथ कोई अन्याय किया गया है तो आपको पूरी राहत दी जायेगी। इस सौदेके बारेमें हम दोनोंके पत्र-व्यवहारने जो रूप ले लिया है, उसके लिए मुझे दुःख है।

मेरा ख्याल है, न्यायका तकाजा है कि मैं आपको यह बता दूं कि अभी पिछले ही दिनों श्रीयुत शंकरलाल बैंकरने मुझसे कहा कि जिस गारंटीपत्र पर आपने हस्ताक्षर किये हैं ....[१]

अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १४४५३) की माइक्रोफिल्मसे।

 

  1. साधन-सूत्रमें ही पत्र अपूर्ण है। अपने २५ जुलाईके पत्र में इसका उत्तर देते हुए टी॰ प्रकाशम् ने लिखा था: "मैं आपकी यह बात स्वीकार करता हूँ कि इस मामले में सार्वजनिक कारोवार और सार्वजनिक प्रामाणिकताके सम्बन्धमें हम दोनोंके अनुभवों और दृष्टिकोणोंमें कहीं कोई मेल नहीं है। मैंने ऐसे बहुतसे मामले देखे है जिनमें व्यक्तिगत गारंटीकी ऐसी धाराएँ दस्ताजोंवेमें सिर्फ इसलिए जोड़ दी गई हैं कि सम्बन्धित पक्षोंको सजाका डर बना रहे जिससे वे ठीक व्यवहार करते रहें; किन्तु वास्तव में उन धाराओंपर अमल करनेका कोई खयाल कभी नहीं रहा। मैं एकसाधारण जनकी हैसियतसे ही बोल रहा हूँ; और मैं आप-जैसे ऊँची स्थितिके लोगोंकी श्रेणी में आनेका दावा भी नहीं करता। मैंने कहा था कि मैं पंच-फैसलेके लिए तैयार हूँ; किन्तु अपने पत्रके अन्तिम वाक्य में आपने लिखा है कि श्रीयुत शंकरलाल बैंकरको, उनके वकील जैसा सुझायें, वैसी कार्रवाई करनेकी आपने सलाह दी है। मुझे मालूम था कि इधर खादी-बोर्डमें पंच फैसलेके बजाय कचहरी अदालतों में जानेकी प्रवृत्ति खूब आ गई है। मुझे दुःख है कि इस मामले में आप जितना चाहिए था, उतना निष्पक्ष रवैया नहीं अपना सके।..."