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९९. तार: राजेन्द्रप्रसादको[१]

[२१ जुलाई, १९२८ या उसके बाद]

राजेन्द्रप्रसाद
मार्फत जयवती
लन्दन
मेरी अनुपस्थितिके लिए क्षमा माँग लें।

गांधी

अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १४७५३) की माइक्रोफिल्मसे ।

 

१००. रेशमका निषेध

'नवजीवन' में 'रेशम और व्याघ्रचर्म' के[२] बारेमें मैंने जो लेख लिखा था उसीके सम्बन्धमें काकासाहब कालेलकरने रेशमके निषेधमें निम्नलिखित प्रमाण[३] भेजे हैं। वे विचार करने योग्य हैं।

[गुजराती से]

नवजीवन, २२-७-१९२८

 

  1. राजेन्द्रप्रसाद के २१ जुलाई के तारके उत्तरमें, जो इस प्रकार था: "विएना सम्मेलन में शामिल होनेकी सोचता हूँ। तार द्वारा हिदायत भेजें। मार्फत जयवती।"
  2. देखिए "स्नातकके प्रश्न", १५-७-१९२८। गांधीजीने कहा था कि अहिंसाको दृष्टिले रेशम और व्याघ्रचर्म त्याज्य हैं।
  3. अनुवाद यहाँ नहीं दिया जा रहा है। काकासाहबने लिखा था कि पुराने कालमें लोग सारे संसार में चमड़े का प्रयोग कर थे। वैदिक कालमें ऋषिगण व्याघ्र अथवा हरिणके चर्मका आसनकी भांति उपयोग करते थे क्योंकि प्रजापालक क्षत्रिय राजा कृषिकी रक्षा के लिए हरिण और मवेशीकी रक्षा के लिए व्याघ्र आदिका आखेट करते थे। किन्तु आज तो पशुओंका वध केवल चमड़ा पानेकी दृष्टिले होता है, इसलिए अहिंसाकी दृष्टिसे उसका त्याग करना ही उचित है। पहले रेशम हमारे यहाँ नहीं होता था। वह बाहरसे आता था और कदाचित् हमारे पूर्वज यह नहीं जानते थे कि उसका निर्माण कोई कीड़ा करता है और वह उसकी हत्या करके प्राप्त किया जाता है। बाद में वह रूढ़ हो गया और फिर उसका उपयोग रोकना कठिन हो गया। तथापि स्मृतिकारोंने संन्यासियोंके लिए उसके उपयोगका निषेध किया। प्रमाणमें काकासाहबने कात्यायनस्मृतिके कुछ श्लोक उद्धृत किये थे।