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सात


दयाका पात्र मानकर सरकारसे उनके लिए किसी तरहकी याचना न करें: "सत्याग्रही दयाके पात्र नहीं हैं; वे दयाके भूखे भी नहीं हैं; वे तो न्यायके भूखे हैं" (पृष्ठ १४१)।

संघर्ष में विजय मिलनेके बाद गांधीजी ने सरकार और बारडोलीकी जनता तथा वल्लभभाई, दोनों पक्षोंको बधाई दी। सरकार द्वारा लगानकी वसूलीके लिए प्रयुक्त उत्पीड़क उपायोंके आरोपोंकी जाँचके सिवाय सत्याग्रहियोंकी शेष सब माँगें पूरी हो गयी थीं। वल्लभभाई द्वारा इस माँगका आग्रह छोड़नेपर गांधीजी ने कहा, "यह अच्छा ही है कि पुराने अन्यायोंका सवाल फिरसे न उठाया जाये। सिवाय इसके कि इनके लिए क्षतिपूर्ति कर दी जाये, इनका और क्या इलाज है?" (पृ॰ १५४)। इसी प्रकार जिन स्वयंसेवकोंने अपने त्याग और सेवा-भावसे इस संघर्षको विजयकी चोटीतक पहुँचाया था उनसे उन्होंने संघर्षके विरोधियों और सरकारी अधिकारियोंकी मित्रता हासिल करनेके लिए कहा (पृ॰ १६९-७०)। बारडोली की जनताको, इसी सिलसिलेमें, जनरल बोथा और स्मट्सका उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि रचनात्मक कार्य भी सत्याग्रहकी लड़ाईका एक अनिवार्य हिस्सा है। उन्होंने कहा कि यद्यपि जनरल बोथा और स्मट्स "जगत्प्रसिद्ध सेनापति थे . . . फिर भी . . . रचनात्मक कार्यके महत्त्वको अच्छी तरह समझते थे" (पृ॰ १७२)। उन्होंने सरकार और जनता, दोनोंसे इस संघर्षसे शिक्षा लेनेके लिए कहा। "हाँ, सरकार भी [शिक्षा] ले सकती है, बशर्ते कि जब सत्य जनताके पक्षमें हो और उसे अपने उचित स्थान पर प्रतिष्ठित करानेके लिए जनता अहिंसाके आधारपर अपनेको संगठित कर सकती हो तब सरकार उसकी शक्तिको स्वीकार करनेको तैयार हो" (पृ॰ १८६)। और जनता उससे यह शिक्षा ले सकती है कि "जबतक वह, जिसे सामूहिक आत्म-शुद्धिकी सतत प्रक्रिया कह सकते हैं, उस प्रक्रियासे न गुजरेगी, तबतक अहिंसाके आधारपर अपनेको संगठित नहीं रख पायेगी" (पृ॰ १८७)।

'नवजीवन' में लिखित कई लेखोंमें गांधीजी ने अहिंसाके नैतिक और व्यावहारिक फलितार्थों पर विचार किया और इस आदर्शके बाहरी रूपों और उसकी आन्तरिक भावनाका भेद स्पष्ट किया। भारतीय परम्पराने अहिंसाको मनुष्यका परम धर्म माना है। गांधीजी भी ऐसा ही मानते हैं, किन्तु उनकी दृष्टिमें धर्म नैतिकताकी कोई बनी-बनाई अचल नियमावली नहीं है। उनके लिए वह कर्ममय जीवनमें सत्यकी ऐसी खोज है कि जिसका अनुसन्धान अनुदिन करना होता है। अहिंसाकी समस्याके प्रति अपने इस प्रयोगात्मक रुखके कारण गांधीजी को अहिंसाके सम्बन्धमें लोक-प्रचलित धारणाओंको अस्वीकार करने में कोई संकोच नहीं हुआ।

अहिंसाका यह सवाल सितम्बरमें जब आश्रममें एक बीमार बछड़ेको कष्टसे छुटकारा देनेके लिए गांधीजी की सलाहपर उसका प्राण-हरण किया गया तब उग्र चर्चाका विषय बन गया। अहमदाबादमें तो इस घटनाके फलस्वरूप एक तूफान ही