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सरकारकी कुबुद्धि


ऊपर है। जाँच-समिति द्वारा की जानेवाली जाँचकी शर्तोंमें यह बात साफ-साफ आनी चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं किया गया है।

इसके अतिरिक्त एक दूसरी शर्त भी बहुत जरूरी है। सरकारने लगान वसूल करनेके लिए जिस दमन-नीतिका आश्रय लिया वह उचित थी या अनुचित, जाँच-समितिको इस बातकी जाँच भी करनी चाहिए।

लोगोंको दमन-नीतिसे जो क्षति उठानी पड़ी है उसके जितने अंशकी पूर्ति की जा सकती है वह की जानी चाहिए। लोगोंकी तन्दुरुस्ती बिगड़ गई है, उनके ढोर-डंगर दुबले हो गये हैं, और कुछ मर गये हैं, ऐसे कष्ट सत्याग्रहकी लड़ाई में अनिवार्य हैं। लोग इनका हर्जाना नहीं माँगते। किन्तु जो कैदमें पड़े हैं, उनका क्या होगा? जिनकी जमीनें कुर्क हो गई हैं, उनका क्या होगा? जिनकी माल-मिल्कियत कौड़ीके दाम नीलाम हो गई है, उनका क्या होगा? इसलिए यदि समझौता होना है और यदि सरकार न्याय करना चाहती है तो समझौतेके[१] कागजपर दस्तखत होते ही:

  1. सत्याग्रही कैदी रिहा किये जाने चाहिए।
  2. कुर्ककी हुई जमीनें (वे चाहे नीलाम हुई हों या न हुई हों) वापस दी जानी चाहिए।
  3. किसानोंकी भैंसे और बन्दूकें आदि जो हथियार कुर्क कर लिये गये हैं अथवा नीलाम कर दिये गये हैं, उनकी कीमत बाजार भावसे लौटाई जानी चाहिए।
  4. जो तलाटी और पटेल आदि हटा दिए गये हैं उनको फिर बहाल किया जाना चाहिए। अथवा इनमें से जिन्होंने इस्तीफे दे दिये हैं उनको अपने इस्तीफे वापस लेनेकी अनुमति मिलनी चाहिए।
  5. लोगोंको सत्याग्रहके सम्बन्धमें दी गई अन्य सजाएँ रद्द की जानी चाहिए।

इनमें से कोई भी बात सरकारी विज्ञप्तिमें दिखाई नहीं देती। जहाँतक हमें जानकारी है, सरकारने किसी दूसरे समझौते के सम्बन्धमें ऐसी एकतरफा कार्रवाई नहीं की है।

इतना तो जाँचके सम्बन्धमें जाँचके पूर्व किया ही जाना चाहिए।

किन्तु बढ़ा हुआ लगान जमा करानेकी सरकारी माँग कायम ही है। यदि यह माँग कायम रखनी थी तो श्री वल्लभभाईको सूरत बुलानेकी क्या जरूरत थी? गवर्नर साहबको सुरत जानेकी तकलीफ करनेकी क्या जरूरत थी? सरकार कहती है कि इस माँगका कारण तो स्पष्ट ही है। हमें तो लगता है कि यह कारण सरकारके सिवा किसी दूसरेके लिए स्पष्ट नहीं है। बढ़े हुए लगानको जमा करानेकी माँग किसी तटस्थ मनुष्यने पसन्द की हो, ऐसा तो दिखाई नहीं देता। 'पायनियर' और 'स्टेट्समैन' जैसे अंग्रेजोंके भौंपू भी सत्याग्रहियोंकी नीतिमत्ताको पूरी तरह पसन्द करते हैं और मर्यादाके भीतर रहनेके लिए उन्हें धन्यवाद देते हैं। सरकार बढ़े हुए लगानको जमा करानेके हठसे क्यों चिपकी हुई है, इस बातको समझना मुझे तो लगभग असम्भव लगता है। सरकारको यह भय तो होना ही नहीं चाहिए कि यदि लोग इस मामलेम

 

  1. बारडोली-समझौतेकी शर्तोंके लिए देखिए परिशिष्ट २।