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आठ


उठ खड़ा हुआ, जिसने गांधीजी के नैतिक साहसकी उससे भी ज्यादा कड़ी परोक्षा ली होगी जितनी कि तेरह वर्ष पहले आश्रम में एक हरिजन परिवारको प्रवेश देने पर हुई थी। नाराज पत्र-लेखकोंने उन पर मानों पत्रोंकी बौछार ही कर डाली। ये पत्र इतने तीखे थे कि उनमें से कुछ पत्र-लेखकोंके विषय में तो गांधीजी को अपनी आदतके खिलाफ किंचित् व्यंग्यके साथ यह कहना पड़ा कि "कोई गालियाँ देकर अपनी अहिंसा प्रकट कर रहा है, तो कोई सख्त आलोचना करके मेरी अहिंसाको परीक्षा ले रहा है" (पृ॰ ३५२)। किन्तु एक सत्यान्वेषीके नाते उन्होंने अपने विचारोंको सार्वजनिक चर्चा करनेके इस अवसरका स्वागत किया।

गांधीजी जानते थे कि लोकमत उनके इस कार्यका अनुमोदन नहीं करेगा। किन्तु वे यह भी समझते थे कि अहिंसाके "पंथ पर आदमीको अकसर अकेले ही चलना पड़ता है" (पृ॰ ३२४) और यह कि सत् और असत्का भेद मनुष्य केवल अपने अन्तर्यामीके आदेशका, अपने आन्तरिक प्रकाशका अनुसरण करके ही कर सकता है। उन्होंने कहा कि "अन्ततः अहिंसाकी परीक्षाका आधार भावना पर रहता है" (पृ॰ ३२५)। दयाभावसे प्रेरित प्राण-हरणका मतलब "शरीरमें स्थित आत्माको दुःख-मुक्त करना है" (पृ॰ ३२४)। अहिंसाकी प्रचलित धारणाकी आलोचना करते हुए उन्होंने कहा: "किसोको गाली देना, किसीका बुरा चाहना, किसीका ताड़न करना, कष्ट पहुँचाना, सभी कुछ हिंसा है। जो मनुष्य अपने स्वार्थके लिए दूसरेको कष्ट पहुँचाता है, उसका अंग-भंग करता है, भर-पेट खानेको नहीं देता, और अन्य किसी तरहसे उसका अपमान करता है, वह मृत्युदण्ड देनेवालेकी अपेक्षा कहीं अधिक निर्दयता दिखलाता है" (पृ॰ ३२४)।

दयाभावसे प्रेरित प्राणहरणके विषयमें तो गांधीजी को यह निश्चय था कि वह सदाचारकी नीतिके अनुकूल है, किन्तु आश्रमके बगीचे और खेतोंमें बन्दरोंके उत्पातको रोकनेके लिए कोई प्रभावकारी किन्तु अहिंसक उपाय ढूंढ़ निकालनेका सवाल उनके लिए फिर भी कठिन रहा। बन्दरोंने आश्रम में बड़ा उत्पात मचा रखा था। अब सवाल यह उठा कि उन्हें मारना हिंसा-धर्मके कहाँ तक अनुकूल होगा। गांधीजी ने स्वीकार किया, बन्दरोंको मार भगाने" या "मार डालने" में "शुद्ध हिंसा ही" क्योंकि "उसमें बन्दरोंके हितका विचार नहीं, किन्तु आश्रमके ही हितका विचार है।" तात्पर्य यह कि स्वार्थसे प्रेरित होकर किसीको कष्ट देना हिंसा है। किन्तु साथ ही उन्होंने यह भी माना कि "देहवारी जीवमात्र हिंसासे ही जीते हैं।" "समाजने कुछ-एक हिंसाओंको अनिवार्य गिनकर व्यक्तिको विचार करनेके भारसे मुक्त कर दिया है। तो भी प्रत्येक जिज्ञासुके लिए अपना क्षेत्र समझकर उसे नित्य छोटा करते जानेका प्रयत्न तो बच ही रहता है" (पृष्ठ ३२६)। अहिंसाके उपासकको कमसे-कम प्रत्यक्ष हिंसासे – यहाँ तक कि खेती-कार्यमें जो हिंसा होती है उससे भी – अवश्य बचना चाहिए, इस दलीलके जवाबमें गांधीजी ने कहा, "खेती करनेवाले असंख्य मनुष्य अहिंसा-