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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

होकर जानेके लिए हम तैयार रहें। मरनेके लिए जो तैयार है, वह अगर विवेक छोड़ दे तो फिर वह शहीद नहीं, विवेकहीन मूढ़ है। बिना जरूरत ही जो अपने शरीरको नष्ट कर देता है, वह पागल या मूर्ख समझा जाता है और उस मरणमें वीरता नहीं है; इसलिए वह स्वयं अपना या अन्य किसीका उपकार भी नहीं कर रहा है।

इसलिए बारडोली या वालोडके लोगोंको अधिक माँगें पेश करनेका अधिकार है, तो भी उन्होंने उस अधिकारसे काम नहीं लिया है और अब सरकारने मर्यादाका उल्लंघन कर डाला है, इसलिए भी वे और अधिक माँगें पेश नहीं कर सकते। सत्याग्रहियोंकी माँगें इस प्रकार हैं:

  1. उनकी शिकायतें सुनकर न्याय देनेवाली स्वतन्त्र निष्पक्ष समिति नियुक्त की जाये;
  2. और समिति इस जाँचमें निहित शर्तोंका पालन करे; अर्थात्
(क) जो लोग सत्याग्रहके सम्बन्धमें कैद हुए हैं, उनको छोड़ दिया जाये।
(ख) सत्याग्रहके सम्बन्धमें जितनी जमीन जब्त हुई है, वह लौटा दी जाये।
(ग) लोगोंकी या उनके कारण अन्य हुई प्रत्यक्ष हानि पूरी कर दी जाये।

जो अप्रत्यक्ष नुकसान लोगोंको मवेशियों और मालका हुआ है, सत्याग्रहियोंको उसका भी मुआवजा माँगनेका पूरा अधिकार है, मगर तो भी उसे वे नहीं माँगते। अगर माँगें तो यह समझौतेका लक्षण नहीं गिना जायेगा। सत्याग्रही हमेशा जान-माल गँवानेकी तैयारी करके ही सत्याग्रह शुरू करता है। इसलिए जब्ती आदिसे होनेवाले नुकसानके अतिरिक्त जो अप्रत्यक्ष नुकसान हुआ हो, सत्याग्रही उसका मुआवजा न माँगें।

ऊपर दी हुई लोगोंकी मांगोंको सरकार स्वीकार करे तो बकाया लगान देना लोगोंका धर्म हो जाता है। यह मैं मान ही लेता हूँ कि लोग पुराना लगान भरनेको हमेशा तैयार रहे हैं। कभी न कभी तो यह लगान भरना ही पड़ता। जिस लगानके अनुचित होनेके कारण सत्याग्रह शुरू हुआ है, उस लगानकी बढ़ी हुई रकम बम्बईके कोई गृहस्थ दे रहे हैं और उनका तार अखबारोंमें छपा है। इन्होंने अगर सरकारको इतनी भेंट देनेका विचार रखा हो तो इन्हें कोई रोक नहीं सकता। ऐसी भेंटसे सरकारके मनका समाधान हो जाये तो हमें इससे भी कोई द्वेष नहीं हो सकता। आज इसका निर्णय नहीं किया जा सकता कि बारडोली ताल्लुकेके इस बम्बईवासी गृहस्थने यह रकम देना स्वीकार करके अपना या जनताका अहित किया है या नहीं। सरकार के लिए अत्यन्त छोटी रकम होने पर भी, अगर इस इजाफेकी रकमकी ऐसी भरपाईसे समझौता हो सके तो उसे होने देना सत्याग्रहीका धर्म है।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, २९-७-१९२८