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११८. टिप्पणी
स्वयं ही करना पड़ेगा

खम्भातसे एक नौजवान लिखते हैं:[१]

शादी या ऐसे ही दूसरे मौकों पर दिये जानेवाले भोजको मैं क्षम्य समझता हूँ। सीमन्तके[२] समय दिये हुए भोजको मैं शर्मकी बात मानता हूँ और मरने पर खिलानेको पाप समझता हूँ, फिर भले ही वह बारहवें दिनका हो या तेरहवें दिनका, बूढ़ेकी मौतसे सम्बन्ध रखता हो या नौजवानकी। मुझे तो सभी भोज फिजूल और असभ्यतापूर्ण लगते हैं। शरीरकी रोजमर्राकी जरूरतोंको हम भोगका साधन कैसे बना डालते हैं, यह मेरी बुद्धि समझ नहीं सकती। मैं अपनी विवशताके कारण ऐसी किसी चीजको सह भले ही लूँ, तो भी अगर हम रूढ़िके गुलाम न बन गये हों, तो हमें मृत्युभोज और सीमन्तभोजमें तो हरगिज न जाना चाहिए। हमारा अपना शुद्ध आचरण ही मुख्य बात है। जैसा हम करते हैं उसी तरह माँ-बाप, स्त्री या बड़े लड़के-लड़की न करें, तो उसका दुःख नहीं होना चाहिए और उनपर जबरदस्ती न होनी चाहिए। हम यकीन रखें कि हमारा अपना आचरण शुद्ध रखने से दूसरोंको भी उसका स्पर्श होगा। मुझे पता नहीं, जैन साधु क्या करते हैं। लेकिन इसमें शक नहीं कि समाजकी कुरीतियोंकी वे परवाह न करते हों तो वह ठीक नहीं है।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, २९-७-१९२८

 

११९. बहिष्कार या असहकार

एक मित्र लिखते हैं[३]:

आजकल जब कि लोगोंके मनमें अशान्ति, हिंसा और अधर्म व्याप्त हैं तब अच्छीसे-अच्छी वस्तुका भी दुरुपयोग होता है। ऐसे समय में हम बहिष्कार शब्द लिखें या असहयोग और दोनोंके पहले व्यक्तिगत या सामुदायिक विशेषण लगायें या न लगायें, हर हालत में उसका अनर्थ तो होगा ही। इसलिए हम प्रत्येक वस्तुकी मर्यादा सूचित कर दें और अमल करनेमें उस मर्यादाका पालन करते हुए सन्तोष मानें। व्यक्तिगत बहिष्कार या असहयोगमें भी हिंसाकी गन्ध नहीं होनी चाहिए।

 

  1. पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पत्र-लेखकने पूछा था कि नवजीवनके लेखोंसे प्रभावित होकर जिन नवयुवकोंने तेरहवीं आदि अवसरोंपर दिये जानेवाले भोजोंमें सम्मिलित होना छोड़ दिया हो, उनके कुटुम्बके लोगोंको भी इसके लिए राजी करनेको दृष्टिसे गांधीजी कुछ कर सकते हैं या नहीं।
  2. प्रथम गर्भ धारणके चौथे, छठे अथवा आठवें महीनेमें दिया गया भोज।
  3. पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। लेखकके अनुसार बालिकासे विवाह करनेवाले वृद्धका बहिष्कार समाज भले ही करे, लेकिन ऐसा अपराध करनेवालेके कुटुम्ब या उसको सन्तानका बहिष्कार नहीं करना चाहिए।