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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जो वृद्ध बालिकासे-विवाह करे मैं उसका भी तिरस्कार करनेको नहीं कहता। वह तो दयाका पात्र है। मनुष्यको जब कामरूपी शत्रु घेर लेता है, तब वह अवस्थाका भान भूल जाता है। पवित्रसे-पवित्र सम्बन्ध भी नष्ट हो जाता है। यह नशा मद्यपानसे भी अधिक बुरा है। इसलिए हम अपनी ही निर्बलता, अपनी भूलोंका विचार करके भी विषयासक्त वृद्ध पुरुष पर तरस खायें। किन्तु उसपर दया करना और उसके साथ सहयोग करना दो अलग-अलग वस्तुएँ हैं। सच्ची दयामें मोहको स्थान नहीं है। सच्ची दयामें अन्ध प्रेमका स्थान नहीं है। इसलिए जिसने भूल की है, उसने समाजके प्रति अपराध किया है। उसे इस भूलका भान कराना अत्यावश्यक है। यह ज्ञान या तो गुनहगारको दण्ड देकर कराया जा सकता है अथवा समाजने अमुक शर्तोंके साथ उसे जो अधिकार दिये थे, उन्हें छीनकर कराया जा सकता है। अधिकार ले लेने और दण्ड देने में भेद है। किसी आदमीको ईमानदार समझकर मैं उसे अपना प्रतिनिधि बनाऊँ और वह बेईमान साबित हो तो उससे वह हक छीन लूँ, यह एक बात है, और उसे शारीरिक दण्ड दूँ, या उसका घर-बार लूट लूँ या सरकारसे शिकायत कर उसे दण्ड दिलाऊँ, यह दूसरी बात है। और यदि मैं स्वयं उसीको दण्ड नहीं देता, न दिलवाता हूँ तो उसके कुटुम्बी-जनोंके प्रति ऐसे व्यवहारकी बात ही नहीं उठती। सच पूछो तो असहयोग या बहिष्कारमें जब दण्ड अथवा हिंसा दाखिल हो जाती है, तब वह प्रभावशाली अस्त्र नहीं रहता; क्योंकि तब दण्ड देनेवाला खुद ही अपराधीके समान बन जाता है और अपराधी स्वयं यह मानकर कि उसके अपराधका प्रायश्चित्त पूरा हो गया है अपने किये कृत्यके सम्बन्ध में अधिक आग्रही बन जाता है और प्रसंग आने पर फिर वैसा ही करनेको तैयार हो जाता है। ऐसे ही कारणोंसे आज तक दण्डनीति अथवा हिंसासे पाप अथवा गुनाह होना बन्द नहीं हुआ है और इसीलिए मैंने अपने सभी लेखोंमें कहा है कि सुधारकको शुद्ध और मर्यादाशील होना चाहिए तथा उसके प्रत्येक काममें अहिंसा अथवा प्रेम होना चाहिए। मेरे सुझाये बहिष्कारका यह अर्थ हुआ कि बहिष्कृतसे हम कोई सेवा न लें। खुद असुविधा उठा लें, और उसे जो विशेष अधिकार दिये हों, उन्हें छीन लें। किन्तु जब-जब उसकी सेवा करनेका प्रसंग आये, तब-तब उसकी सेवा जरूर करें। इस तरह बहिष्कृत आदमी बिरादरीके भोजनमें नहीं आ सकता। उसे अध्यापक बनाया हो तो यह पद उससे हम ले लें। वह अध्यापक हो और हम अगर उससे पढ़ते हों तो न पढ़ें। वह हमारा भाड़ेदार हो तो भाड़ेदार नहीं रह सकता, मगर बीमार हो तो हमारी सेवा ले सकता है। वह बिना कारण ही भूखों मरता हो तो हम उसकी भूख मिटायें। यह तो मैंने सहज दृष्टान्तके रूपमें बताया है। थोड़ेमें बात यह है कि हम जाग्रत स्थितिमें विचार करके जो अपने बारेमें पसन्द न करें, वह दूसरे किसीके बारे में न चाहें, न करें।

आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।

[गुजराती से]

नवजीवन, २९-७-१९२८