पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 37.pdf/१४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११४
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

प्रकारके रचनात्मक कार्यसे गायोंको अवश्यंभावी विनाशसे बचाया जा सकता है। पशु-संरक्षण शास्त्रके प्रति चरवाहों और ग्वालोंमें रुचि पैदा करना इन कार्यकर्त्ताओंका कर्त्तव्य होगा। यदि इस वर्गके इतने सारे स्त्री-पुरुषोंको अपना धन्धा, जिससे अधिक सम्मानपूर्ण और कोई धंधा हो ही नहीं सकता, ज्यादा समझदारीसे और मानवीयतापूर्ण दृष्टिकोण रखते हुए चलाने के लिए प्रेरित किया जा सके तो समझ लीजिए कि आधा मैदान तो फतह हो गया। आज तो भारतमें ऐसी स्थिति पैदा हो गई है कि गाय और मनुष्य दोमें से किसका अस्तित्व रहे और किसका मिट जाये। और यदि गो-पालन और गायोंके उपयोग में हम वैज्ञानिक पद्धतिके अनुसार नहीं चले तो या तो वह हमें बरबाद कर देगी या हम उसके विनाशका कारण बनेंगे। इसलिए यद्यपि बृहत् सम्भावनाओंका बोध करानेवाला नाम हटा लिया गया और उतनी ही संभावनाओं का बोध करानेवाले संविधानको भंग कर दिया गया है, लेकिन जो काम हमें कल करना था वह आज भी करना है और अधिक उत्कटतासे करना है। इसलिए मैं उम्मीद करता हूँ कि जो लोग अबतक पैसोंसे तथा अन्य प्रकारसे भूतपूर्व संघकी सहायता करते आये हैं, वे उसकी उत्तराधिकारिणी संस्थाकी भी सहायता करते रहेंगे। प्रबन्ध समिति निकट भविष्यमें नया संविधान और नये नियम प्रकाशित करनेवाली है। लेकिन दाता लोग अपने दान भेजनेके लिए उसकी प्रतीक्षा न करें।

और अन्तमें, यद्यपि पुराने संघको भंग कर देना उचित ही था, फिर भी यह तो कहा ही जा सकता है कि उसका अस्तित्व सर्वथा निष्फल नहीं रहा। उसके कारण जनताके सामने इस विषयका ऐसा साहित्य आ सका जो लोकप्रिय शैलीमें लिखा गया है और सस्ता है तथा उपयोगकी दृष्टिसे बहुत सुविधापूर्ण है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसने चर्मशोधनके धन्धेके प्रति हिन्दुओंके मनमें जमे पूर्वग्रहको दूर करने में बहुत हद तक सफलता प्राप्त की है। जहाँ चार वर्ष पहले चर्मालयोंको गो-रक्षाकी योजनाका हिस्सा बनानेके खयाल पर सभी हँस देते थे, वहाँ आज गो-रक्षण में उसके भारी महत्त्वको कमसे-कम सिद्धान्ततः तो सभी स्वीकार करते हैं। फिर, चार साल पहले गो-रक्षाके सम्बन्धमें कोई भी महत्त्वका व्यक्ति रचनात्मक कार्यकी बात नहीं सोचता था। बस, सब यही मानते थे कि यदि मुसलमानोंको बकरीदके अवसर पर गो-वध न करनेके लिए राजी किया जा सके तो गायकी रक्षा हो सकती है। अब लगभग सभी यह स्वीकार करते हैं कि भूतपूर्व संघने जिस रचनात्मक कार्य की रूप-रेखा तैयार की, उसके बिना गायकी रक्षा नहीं हो सकती।

लेकिन जनता तो रचनात्मक तरीकेको तभी अंजाम दे सकती है, जब हम प्रत्यक्ष रूपसे व्यवहारमें यह दिखा दें कि इस तरीकेको अंजाम दिया जा सकता। यही वह काम है जो गो-सेवा संघको भूतपूर्व संस्थासे विरासतमें मिला है। चार वर्षोंके अनुभवसे मैं जानता हूँ कि यह काम कितना कठिन है, इसके लिए धैर्यपूर्वक कितना अध्ययन और परिश्रम करनेकी आवश्यकता है। इसलिए जिन भक्त हृदय श्रद्धालु-जनोंके मनमें मूक प्राणि-जगत्की प्रतिनिधि-रूपा गायकी — हिन्दुओं द्वारा परम पूजित होकर भी उनके अज्ञान और अन्धविश्वासके कारण इतना अधिक