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१५९. एक पत्र

स्वराज आश्रम, बारडोली
४ अगस्त, १९२८

प्रिय मित्र,

खेद है कि मैं अबतक आपके पत्रका उत्तर नहीं दे पाया।

मनुष्य-जातिके अधिकांशके जीवनसे हमें इस बातकी पर्याप्त साक्षी मिलती है कि उनके पूर्वज इस कारण कि वे हिन्दुओंकी तरह उनके लिए श्राद्ध आदि कर्म नहीं करते, उनके प्रति, कमसे-कम हमारी जानकारीमें, कोई असन्तोष प्रकट नहीं करते। 'रामायण' और 'महाभारत' में श्राद्ध आदिके उल्लेखोंसे यह साबित नहीं होता कि एक समय में हम ये सभी कियाएँ किया करते थे। मुझे तो यह लगता है कि अपने पूर्वजोंके प्रति सच्ची श्रद्धा प्रकट करने और उनका स्मरण करनेका तरीका उनके गुणोंका अनुकरण करना होना चाहिए। खुद मैं अपने पिताके लिए ऐसा कोई श्राद्ध-कर्म नहीं करता और न उनकी वर्षी ही मनाता हूँ, क्योंकि मैं हर रोज अपने माता-पिताका स्मरण करने और अपने जीवनमें उनके गुणोंको उतारनेका प्रयत्न करता हूँ।

हृदयसे आपका,

अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १३८९६) की फोटो-नकलसे।

 

१६०. पत्र: वसुमती पण्डितको

स्वराज आश्रम, बारडोली
शनिवार [४ अगस्त, १९२८][१]

चि॰ वसुमती,

तुम्हारे पत्रसे चिन्तित हुआ हूँ। ऐसा लगता है कि तुम बहुत सख्त बीमार हो। मुझे डॉक्टरसे लिखवाना कि बीमारीके बारेमें उनका क्या ख्याल है और क्या दवा दे रहे हैं। यहाँसे किसीको भेजनेकी जरूरत है क्या?

मैं आजकल बारडोलीमें हूँ। मुझे बारडोलीके पते पर उत्तर देना।

बापूके आशीर्वाद

चि॰ वसुमतीबहन
कन्या गुरुकुल

गुजराती (सी॰ डब्ल्यू॰ ४८९) की फोटो-नकलसे।

सौजन्य: वसुमती पण्डित

 

  1. ढाकखानेकी मुहर से।