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१६५. अभाव रुईका है या उद्यमका?

बिहारके जिला मानभूमके कसुंडा ग्रामके बाल सम्मेलनके मन्त्री लिखते हैं:[१]

इस पत्रको लिखनेवाले भाई गुजराती हैं। ये बिहारके बालकोंके जीवनमें और खादीमें जो दिलचस्पी लेते हैं, मैं उसके लिए उन्हें धन्यवाद देता हूँ। किन्तु इस कथनसे मुझे दुःख हुआ है कि पूनी या रुईके अभाव में उन्हें चरखे बन्द करने पड़े हैं। जिस व्यक्तिमें चरखे जुटा लेनेकी शक्ति है, वह रुई तो चाहे जहाँसे मँगा ले सकता है; और पूनियाँ तो बाहरसे मँगानेकी चीज ही नहीं है। मैंने 'नवजीवन' में कई बार लिखा है कि जिसे रुई धुननी और पूनी बनानी नहीं आती उसे कातनेवाला कहना ही नहीं चाहिए। रोटी बनानेवाले को आटा गूंधकर रोटी बेलनी और सेकनी आये, तभी कहा जा सकता है कि उसे रोटी बनानी आती है। इसी तरह जो रुई धुनकर और पूनी बनाकर कातना जानता है, वही कातना जाननेवाला कहा जायेगा। सच पूछो तो ये तीनों बातें मिलकर एक ही क्रिया है। पूनीको अगर हम मोटेसे-मोटे सूतकी संज्ञा दें तो भी शायद गलत नहीं होगा। घुननेकी क्रिया सहज और सुन्दर है। इसे सीखनेमें देर नहीं लगती। इसलिए इस पत्रके लेखकसे मेरा यह कहना है कि बिहार प्रान्तमें पूनियाँ कसुंडा गाँवमें ही मिलनी चाहिए और चरखोंको जो बन्द करना पड़ा है, उद्यमके इस अभावमें मैं तो चरखेके प्रति सच्चे प्रेमका अभाव भी देख रखा हूँ। मैं आशा रखता हूँ कि जहाँ-जहाँ यज्ञार्थ चरखे चलते हैं, वहाँ-वहाँ कातनेवाले शीघ्रतासे घुनना और पूनी बनाना सीख लेंगे।

[गुजराती से]

नवजीवन, ५-८-१९२८

 

१६६. समझौता अथवा लड़ाई?

चारों ओर समझौतेकी बातें हो रही हैं और नेपथ्यमें सुनाई देती है लड़ाईकी गूंज। कभी सुनते हैं, 'सरकार तो दृढ़ है। जो बातें सूरतमें हुई वह उनमें से एक भी बदलनेके लिए तैयार नहीं है।' कभी यह सुनने में आता है, 'सरकार समझौतेके लिए इच्छुक है। वह जितना झुक सकती है उतना झुकना चाहती है और यदि उसकी कोई बात ही नहीं सुनी गई तो वह लाचार होकर लड़ेगी।'

इन दोनोंमें से कौन-सी बात सच है यह तो ईश्वर ही जाने। सत्याग्रहियोंको इन दोनों बातोंके विषय में उदासीन रहना चाहिए और फिर भी दोनोंके लिए तैयार

 

  1. पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। लेखकने कहा था कि पूनियोंके अभाव में हमारे यहाँ कताईका काम बन्द है।