१७२. पत्र: मीराबहनको
स्वराज आश्रम, बारडोली
६ अगस्त, १९२८
तुम्हारा पत्र मिला। बेशक, मैं तुम्हें कोई काम करने के लिए विवश करने नहीं जा रहा हूँ। लेकिन साफ है कि मेरी याददाश्त बहुत खराब हो गई है। ऐसा लगता है कि मुझे साफ याद है कि मैंने तुमसे बात की थी और तुमने भी मुझसे कहा था कि उन [बहनों]की खातिर हमें उनकी इच्छाके अनुसार ही बरतना चाहिए।[१] लेकिन या तो यह सिर्फ मेरी कल्पनाकी उपज है कि इस विषयमें मैंने तुमसे कुछ कहा है, जब कि वास्तवमें कुछ कहा नहीं या कोई भारी गड़बड़ी हो गई है। जो भी हो, तुम बिलकुल परेशान न होना। सब-कुछ तुम्हारी इच्छाका ध्यान रखते हुए ही किया जायेगा।
समझौता लगभग पूरा हो चुका है। लेकिन मैं कुछ दिन यहाँ रहकर स्थिति पर नजर रखूंगा।
सस्नेह।
बापू
आशा है कुसुम अब बिलकुल ठीक होगी।
अंग्रेजी (सी॰ डब्ल्यू॰ ५३०५) तथा जी॰ एन॰ ८१९५ से भी।
सौजन्य: मीराबहन
१७३. पत्र: आश्रमकी बहनोंको
बारडोली
मौनवार, ६ अगस्त, १९२८
यहाँ तो समझौता हो गया-जैसा मालूम होता है। इसलिए अब मैं जल्दी आनेकी आशा रखता हूँ। थोड़े दिन तो वल्लभभाई मुझे रोकना चाहते हैं। समझौतेका पक्का पता कल लगेगा।
मेरे मनमें तो [संयुक्त] भोजनालयकी ही बात चक्कर काटती रहती है। यह सोच रहा हूँ कि तुम उसमें पूरी दिलचस्पी और भाग कैसे लेने लगो। मुझे यह
- ↑ देखिए "पत्र: मोराबद्दनको" ५, ५-८-१९२८।
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