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१९२. पत्र: चार्ल्स फ्रेड्रिक वेलरको[१]

१० अगस्त, १९२८

बेशक, यह बात मुझे बहुत पसन्द आई कि आप धार्मिक सहिष्णुतासे ही संतुष्ट नहीं हैं, बल्कि चाहते हैं कि एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्मको समझें-सराहें। आप शिकागो आदिमें ऐसा प्रयत्न प्रारम्भ कर देनेके लिए तैयार हैं या नहीं, यह तो, खैर, मैं नहीं ही कह सकता। यह बात तो खुद आपके हृदयकी भावना और व्यक्तिगत अनुभवपर निर्भर करती है। मैं तो एक सामान्य सिद्धान्तकी ही बात कह सकता हूँ कि ऐसे सभी मामलों में कार्यके क्षेत्रको विस्तार देनेके बजाय उसको सीमित क्षेत्रमें ही गहराई तक ले जानेका प्रयत्न करना चाहिए।

मो॰ क॰ गांधी

अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १४३३३) की फोटो-नकलसे।

 

१९३. पत्र: वसुमती पण्डितको

शुक्रवार [१० अगस्त, १९२८][२]

चि॰ वसुमती,

पूर्ण विवरण सहित तुम्हारा लम्बा पत्र आज मिला। यह बहुत अच्छे ढंगसे लिखा गया है और उससे मुझे उन सब बातोंकी जानकारी हो गई जो मैं जानना चाहता था। मैं कोई सुझाव नहीं देना चाहता। डॉक्टर भले आदमी हैं और जो कुछ वे कर रहे हैं उसमें मैं क्यों दखल दूँ? अलबत्ता, चनेका और सो भी मसालेदार पानी देना मुझे तो ठीक नहीं लगता।

मो॰ क॰ गांधी

गुजराती (सी॰ डब्ल्यू॰ ४९४) से।

सौजन्य: वसुमती पण्डित

 

  1. लीग ऑफ नेबर्सके कार्यकारी अध्यक्ष; 'फेलोशिप ऑफ फेथ' और 'यूनियन ऑफ ईस्ट ऐंड वेस्ट' से सम्बद्ध। अपने २१ जून, १९२८ के पत्र में वेलरने लिखा था कि चिरकालसे मेरी एक आकांक्षा यह रही है कि मैं भारत आऊँ . . . वहाँ ऐसी सभाओंमें शरीक होऊँ जिनमें हिन्दू मुसलमानोंके धर्मकी हृदयसे प्रशंसा करें और मुसलमान हिन्दुओंके धर्मकी तथा ईसाई इन दोनोंके धर्मोकी"।
  2. डाकको मुहरसे।