पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 37.pdf/१९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

१९५. भाषण: वालोडमें[१]

[११ अगस्त, १९२८][२]

आप यह तो मानेंगे ही कि मैं सत्याग्रह शास्त्रका आचार्य हूँ, और उसके आचार्यकी हैसियतसे मैं आपसे कहता हूँ कि इससे अधिक शुद्ध, खरी और निर्णायक विजय और कोई नहीं हो सकती थी। यदि सरकारने निर्णय करने में आपके सरदारसे सलाह-मशविरा नहीं किया तो उससे क्या फर्क पड़ता है? आपकी हरएक शर्त पूरी कर दी गई है और आप इससे कुछ-अधिक तो चाहते नहीं हैं। आपको इस बातकी चिन्ता करनेकी कोई जरूरत नहीं है कि समझौता कैसे और किसके प्रयत्नोंसे हुआ। सत्याग्रही सारसे ही सन्तुष्ट हो रहता है, वह छायाके पीछे नहीं भागता। और आप अन्त तक लड़नेकी बात क्यों करते हैं? क्या इसलिए कि आपको बड़ी से बड़ी कठिनाइयों, बारूद और गोलियोंके मुकाबले अपना जौहर दिखानेका मौका नहीं मिला? यदि ऐसा हो तो यह समझ लीजिए कि सत्याग्रही कभी भी यह नहीं चाहता कि उसका विरोधी पशुता पर उतर आये ताकि वह खुद दुनियाको अपनी बहादुरी दिखा सके। वह तो ईश्वरसे सदा यही प्रार्थना करता है कि उसकी कृपासे उसके विरोधी का हृदय-परिवर्तन हो जाये। वह यह नहीं चाहता कि उसका हृदय और भी कठोर हो जाये। और आप लोग अधीर हो रहे हैं? बड़ी लड़ाई तो अब भी हमारे सामने है — स्वतन्त्रताकी वह लड़ाई जिसकी योजना १९२१ में बनाई गई और जिसे लड़ना अभी शेष है।

[अंग्रेजीसे]

यंग इंडिया, १६-८-१९२८

 

१९६. निर्बलके बल राम

"सत्याग्रही जीत गये हैं" यह कहना अतिशयोक्ति है; क्यों कि सत्याग्रहीकी हार तो होती ही नहीं। वह तो मरने तक जुटा ही रहता है। तो भी ऐसा कहना चाहिए कि व्यावहारिक दृष्टिसे तो बारडोलीके सत्याग्रही ही जीते हैं। मृत्युपर्यन्त जूझनेवाले की स्तुति सभी करेंगे किन्तु वह जीत गया है यह कोई नहीं कहेगा। बारडोलीके सत्याग्रहियोंने जो माँगा सो पाया, इसलिए यह माना जायेगा कि वे जीत गये हैं।

 

  1. महादेव देसाईके लिखे "बारडोली वीक बाई वोक" ("बारडोली सप्ताह दर-सप्ताह") शीर्षक लेखसे। इस भाषणका प्रसंग बताते हुए महादेव देसाईने लिखा है कि सत्याग्रहियोंमें से भी कुछ लोग समझौतेसे सन्तुष्ट नहीं थे और उन्होंने गांधीजी तथा सरदार वल्लभभाईसे कहा था कि वे समझौतेके बजाय अन्ततक लड़ना पसन्द करते।
  2. बॉम्बे सीक्रेट ऐब्सट्रेक्टस, पृष्ठ ५५२, पैरा १३५३ (३) से।