आश्चर्य नहीं होता। क्योंकि सरकारके हर काम में भेदनीति नजर आनेपर ही मुझे असहयोग सूझा था।
[गुजराती से]
नवजीवन, १२-८-१९२८
२००. पत्र: मणिलाल और सुशीला गांधीको
बारडोली
१२ अगस्त, १९२८
तुम्हारे पत्र मिले। पत्रोंकी नीरसताके बारे में अब और अधिक नहीं लिखता।
सुशीलाने सुदामाके बारेमें जो प्रश्न पूछा है उसका उत्तर यह है। सुदामा नामक कोई ऐतिहासिक व्यक्ति था या नहीं इस बारेमें हम कुछ नहीं जानते। 'भागवत' में सुदामाके बारेमें क्या कहा गया है वह मुझे याद नहीं आता। नरसिंह मेहता और प्रेमानन्दने जो लिखा है हम तो सिर्फ उतना ही जानते हैं। दोनोंकी कथाएँ काल्पनिक हैं। इन कवियोंको जैसा उचित जान पड़ा उन्होंने ये चित्र वैसे ही उरहे हैं। इसलिए इन कथाओंके हर शब्दको पकड़कर हम प्रसंग-विशेषके औचित्य-अनौचित्यका निर्णय नहीं कर सकते। मुझे तो पति-पत्नी दोनोंका ही चरित्र-चित्रण अच्छा लगता है। भक्तिकी महिमा दरसानेके लिए इन काव्योंकी रचना हुई है। इनमें स्त्रीको घर-गृहस्थी को सुशोभित करनेवाली, उसकी रक्षा और चिन्ता करनेवालीके रूपमें चित्रित किया गया है। सुदामा भक्तिवश अपना काम जैसे-तैसे चला लेता था। किन्तु स्त्रीको बाल-बच्चोंको पालन-पोसना है अतः वह विरक्त सुदामाको चेताती है। भक्त स्वार्थकी दृष्टिसे कुछ माँग ही नहीं सकता, इसलिए सुदामा माँगने में संकोच करता है। हालाँकि सुदामाका माँगना स्वार्थपूर्ण लगता है किन्तु वास्तव में वह निःस्वार्थ ही है। अपनी पत्नी द्वारा प्रेरित किये जानेपर वह उदासीन भावसे कृष्णके पास पहुँचता है और वापस लौट आता है। इसलिए हमें तो इस कथासे भक्तिका रस पान करना है। इस काव्यके द्वारा हम ऐसे किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सकते कि स्त्री-पुरुष दोनोंमें कैसा सम्बन्ध होना चाहिए। इसके लिए तो हम अपनी बुद्धिका उपयोग करें और जो उचित हो वही करें। प्राचीन दृष्टान्तोंको लेकर उन्हें आधुनिक बुद्धिके चौखटेमें बैठानेका प्रयत्न करना न सिर्फ निरर्थक और अनावश्यक है बल्कि ऐसा करना कभी-कभी हानिकर भी होता है। हमें अपने आधुनिक आचार-व्यवहारका निश्चय नीतिके सिद्धान्तोंके अनुसार स्वतन्त्र रूपसे करना चाहिए।
शास्त्रीजीके[१] बारेमें मणिलाल अपने ढंगसे स्वतन्त्रतापूर्वक विचार करता है, यह मुझे अच्छा तो लगता है किन्तु मुझे उसमें एक मूल नजर आती है। प्रत्येक व्यक्तिको मापनेका एक अलग पैमाना होता है। यदि हम हाथीके पैमानेसे घोड़ेको मापेंगे तो
- ↑ बी॰ एस॰ श्रीनिवास शास्त्री।