पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 37.pdf/२०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६८
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अपनेको हमारा शत्रु ही बताते हैं। हम ऐसे लोगोंका नाश नहीं चाहते, हृदय परिवर्तन चाहते हैं।

सरदारने तुम्हें और सरकारको कई बार यह कहा होगा कि जबतक सरकारी अधिकारियोंका हृदय-परिवर्तन नहीं होता तबतक समझौता होना सम्भव नहीं है। अब समझौता हो गया है तो हृदय-परिवर्तन भी कहीं-न-कहीं हुआ ही होगा। सत्याग्रहीको सपनेमें भी यह गर्व नहीं करना चाहिए कि उसने कोई सफलता अपने बलपर पाई है। सत्याग्रही तो अपनेको शून्य मानता है। सत्याग्रहीको तो केवल ईश्वरका बल होता है। वह तो सदा 'निर्बलके बल राम' की रट लगाता है। सत्याग्रही अपने बलका अभिमान छोड़ दे तभी ईश्वर उसकी मदद करता है। यदि कहीं हृदय परिवर्तन घटित हुआ है तो उसके लिए हमें ईश्वरका आभार मानना चाहिए। लेकिन यह भी काफी नहीं है।

हमें मानना चाहिए कि यह हृदय परिवर्तन गवर्नर साहबका हुआ है। यदि उनका हृदय-परिवर्तन न हुआ होता तो क्या होता? जो भी होता उसका हमें तो कोई दुःख न होता। हमने तो प्रतिज्ञा ली थी कि सरकार भले गोलियाँ चलाये हम डरेंगे नहीं। अगर आज हम विजयका उत्सव मना रहे हैं और खुश हो रहे हैं तो हमारा ऐसा करना क्षम्य है। परन्तु इसके साथ ही मैं तुम्हें यह समझाना चाहता हूँ कि इसका श्रेय गवर्नर साहबको है। विधान सभाके अपने भाषण में उन्होंने जो अकड़ दिखाई थी यदि वे उसीपर कायम रहते, यदि वे झुकते नहीं, यदि उन्होंने बारडोलीके किसानोंको गोलीसे उड़ा देनेकी ठान ली होती तो वे वैसा कर सकते थे। तुम्हारी तो प्रतिज्ञा थी कि वे मारने आयेंगे तो भी तुम उनके खिलाफ हाथ नहीं उठाओगे। न तो अपना हाथ उठाओगे और न पीठ ही दिखाओगे, ऐसी तुम्हारी प्रतिज्ञा थी। इसलिए यदि गवर्नर साहबने चाहा होता तो वे बारडोली को धूलमें मिला सकते थे। ऐसा होता तो भी बारडोलीकी ही जीत होती। किन्तु वह जीत अन्य प्रकारकी होती। उस जीतको मनाने के लिए हम तो नहीं होते किन्तु सारा भारत और सारा जगत् उस जीतका जय-जयकार करता। किन्तु किसीका हृदय इतना कठोर हो, यह कामना हम नहीं कर सकते, सरकारी अधिकारियोंके लिए भी हम ऐसी कामना नहीं कर सकते। बारडोली ताल्लुकेकी इस विशाल सभामें, जहाँ सन १९२१ की महान् प्रतिज्ञा[१] लेनेवाले आप लोग इकट्ठे हुए हैं, हम इस बातको न भूलें। मैंने यह सारी भूमिका इसलिए बाँधी है कि हममें कहीं अभिमान छिपा हो तो उसे हम अपने हृदयसे निकाल दें।

मैं तो दूर बैठा हुआ तुम्हारी विजयकी कामना कर रहा था; यहाँ आकर तुम्हारे बीच मैंने कोई काम नहीं किया। वैसे, मैं वल्लभभाईके आधीन था और वे मुझे जिस समय चाहते बुला सकते थे। किन्तु तुम्हारी इस विजयका यश मैं नहीं ले सकता। यह विजय तो तुम्हारी और तुम्हारे सरदारकी ही है। और उसमें गवर्नरका भी हिस्सा है और यदि उसमें उनका हिस्सा हम मानते हैं तो सरकारी  

  1. देखिए खण्ड २२, पृष्ठ १०७।