२१३. पत्र: जेठालाल जोशीको
आश्रम, साबरमती
१५ अगस्त, १९२८
तुम्हारा पत्र मिला। ब्रह्मचर्यंके बारेमें और अधिक गहराईसे विचार करना और उसके पालनका प्रयत्न करते रहना। सहभोज तथा [अ] परिग्रहके सम्बन्धमें उतावली करनेकी आवश्यकता नहीं है। निरन्तर सेवा करनेमें ही शान्ति निहित है। सम्पूर्ण नम्रताके बिना सम्पूर्ण सेवा नहीं हो सकती। निष्काम होना तो आशाके त्यागका मार्ग है और जिसने आशाका त्याग कर दिया उसे निराशा कैसे हो सकती है? इस वृतिके विकास के लिए 'भगवद्गीता' और 'रामायण' का पाठ करना आवश्यक है।
बापूके आशीर्वाद
गुजराती (जी॰ एन॰ १३४५) की फोटो-नकलसे।
२१४. पत्र: वसुमती पण्डितको
बुधवार [१५ अगस्त, १९२८][१]
तुम्हारा पत्र मिला। अब ऐसा कहा जा सकता है कि तुम्हारी तबियत सुधर गई है। यदि तुम हकीमकी दवासे ठीक हो जाओ और तुम्हारा कष्ट हमेशाके लिए दूर हो जाये तो बहुत अच्छा हो। मुझे रामदेवजी का पत्र नहीं मिला।
बापूके आशीर्वाद
गुजराती (सी॰ डब्ल्यू॰ ४९६) से।
सौजन्य : वसुमती पण्डित
- ↑ डाककी मुहरसे।