पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 37.pdf/२१९

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२१५. पत्र: बेचर परमारको

आश्रम, साबरमती
१५ अगस्त, १९२८

भाई बेचर,

तुम्हारा पत्र मिला। मैं यह नहीं जानता कि हज्जामके धन्धेके लिए जिस योग्यताकी आवश्यकता होती है वह तुम गँवा बैठे हो। और अगर गँवा बैठे हो, किन्तु पुनः उस धन्धेमें लौट जानेकी जरूरत आ पड़ी हो तो मैं समझता हूँ कि तुम्हें उसे फिर सीख लेना चाहिए। यदि तुम शिक्षक न होते तो मैंने तुमसे शिक्षक बननेको न कहा होता बल्कि तुम्हें उस धन्धेको अपनाने से विरत करता। आजकल तो तुम शिक्षक हो इसलिए मैं तुम्हें उक्त धन्धा न छोड़ने की सलाह इस उद्देश्य से दे रहा हूँ कि तुम उससे होनेवाली आयको गौण मानकर उसके द्वारा होनेवाली सेवा को मुख्य मानो और सेवाके काममें जुट जाओ। शिक्षक होनेके नाते सेवा करनेके तुम्हारे सामने अनेक अवसर हैं और इन अवसरोंका सदुपयोग करते हुए तुम आसानी से आत्म-सुधार कर सकते हो। शिक्षकके रूपमें सेवा करते हुए तुम अपनी झूठी शर्मको छोड़ सकोगे, मजदूरीकी महिमाको समझ सकोगे और जिन बालकोंको तुम पढ़ाते हो उन्हें भी यदि ये बातें सिखा सको तो इसमें न केवल तुम्हारा कल्याण है, बल्कि बालकोंका भी लाभ है।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती (जी॰ एन॰ ५५७५) की फोटो-नकलसे।

 

२१६. पत्र: तुलसी मेहरको

आश्रम, साबरमती
१५ अगस्त, १९२८

चि॰ तुलसी मे[ह]र,

तुमा[रा] पत्र मीला है। हिमालयके प्रदेशकी मनोहरताका क्या पुछा जाय? आश्रममें बहोतसे परिवर्तन हो रहे हैं। किशोरलालके वडील बंधु बालुभाइका देहान्त हुआ है। खद्दरका नमुना अच्छा है, उसका दाम क्या लगता है?

बापूके आशीर्वाद

जी॰ एन॰ ६५३५ की फोटो-नकलसे।