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२२७. पत्र: उर्मिलादेवीको

सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
१८ अगस्त, १९२८

प्रिय बहन,

आपने अखबारोंमें पढ़ा होगा कि मैं आश्रम लौट आया हूँ। अब आप जब चाहें, धीरेनके साथ आ जायें। मैं धीरेनकी निराशाको समझ सकता हूँ, बल्कि उसे ठीक भी मान सकता हूँ। लेकिन जो धीरज रखते हैं, उन्हें सब कुछ मिल जाता है, और यदि धीरेनमें धैर्य हो और वह अपनेको सभी तरहसे योग्य बना ले तो वह अन्तिम संघर्ष में शामिल होनेकी आशा कर सकता है। और जो लोग इस संघर्ष में भाग लेना चाहते हैं, वे यदि ऐसा करें जिससे इस संघर्षका प्रसंग जल्दी ही आ जाये तो देर-सवेर इसे आना ही है।

आशा है, सुधीर अब पूर्ण रूप से स्वस्थ हो चुका होगा।

हृदयसे आपका,

श्रीमती उर्मिलादेवी
४- ए, नफर कुंडू रोड
कालीघाट
कलकत्ता

अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १३४९३) की फोटो-नकलसे।

२२८. धर्मके नामपर अधर्म

मथुरासे एक भाई लिखते हैं:[१]

पत्रकी हिन्दी समझने में आसान है इसलिए मैंने उसका अनुवाद नहीं किया। उत्तरमें बसनेवाले शास्त्रज्ञ ब्राह्मण भी गुजरातके श्रद्धालु तथापि गलत राहपर चलने-वाले वैष्णवोंके बारे में क्या विचार रखते हैं, उसे पत्र-लेखकके शब्दों में बतलानेके लिए मैंने ऊपरका पत्र उन्हींकी भाषामें दे दिया है। मिष्टान्न भोजन कराने में हजारों रुपये खर्च करना और इस क्रियाको धर्म समझना तो इसी युगकी बलिहारी है। वैष्णव धर्ममें 'पराये दुःख' का दर्शन[२] ही केन्द्रबिन्दु है, जबकि भावुक कहे जानेवाले वैष्णवोंने

 

  1. पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पत्रमें धर्म के नाम पर होनेवाले अपव्ययका वर्णन था। साथ में गायके प्रति किये जानेवाले बुरे व्यवहार तथा दूध-दहीकी कमीका भी उल्लेख था।
  2. गांधीजी का इंगित "वैष्णवजन तो तेणे कहीये जे-पीर पराई जाणे रे" पदकी ओर है।