उसे विलासका साधन बना डाला है। इस देश में जैसा दूसरे स्थानों में होता है, उसी तरह गोवर्धनमें भी गोवंशका नाश होता जा रहा है। दूध, घी की कमीकी जो बात इस पत्रमें लिखी है, उसका अनुभव सभी यात्रियोंको हुआ है। गुजरातके धनिक वैष्णव इस पत्रपर ध्यान दें, चेतें और धर्मके नामपर किये जानेवाले अधर्मसे बचें।
[गुजरातीसे]
नवजीवन, १९-८-१९२८
२२९. शास्त्र के अनुकूल
अस्पृश्यताकी जड़ कितनी ढीली हो गई है, इसके प्रमाण जगह-जगहसे मिलते रहते हैं। भारत-भूषण पण्डित मदनमोहन मालवीयजी सनातन धर्म के स्तम्भ हैं। उन्होंने वर्धामें श्री लक्ष्मीनारायण देवस्थानके बारेमें श्री जमनालालजी को निम्नलिखित पत्र लिखा है
जमनालालजीको श्री प्रमथनाथ तर्कभूषण शर्मा और श्री आनंदशंकर ध्रुवकी तरफसे भी ऐसी ही सम्मतियाँ मिली हैं। जो सनातन धर्मका पालन करनेका दावा करते हैं, वे क्या अब भी अस्पृश्यताको धर्म समझकर पकड़े रहेंगे?
[गुजरातीसे]
नवजीवन, १९-८-१९२८
२३०. एक अज्ञात सेवकका देहान्त
मंचपर खड़े होने और बैठनेवाले नेताओंको तो हम सभी जानते हैं। किन्तु हम सब उस पर इस तरह ठसाठस बैठना चाहें जिससे मंच ही टूट जाये तब भी उसपर बैठनेवाले समुद्रमें बूँदके बराबर जान पड़ते हैं और होते भी हैं। किन्तु समुद्रके सामने बूंदका जितना महत्त्व होता है उतना ही महत्त्व मंचवालोंका होता है। अतः मंचपर बैठनेकी कभी इच्छा न कर जनसाधारण-रूपी समुद्रमें ही रहकर आनन्द माननेवाले और अज्ञात रूपसे सेवा करनेवाले ही सैनिक सच्चे सेवक हैं।
बम्बईके बालूभाई इच्छाराम मशरूवाला एक ऐसे ही सेवक थे। उनके पास धन था और बुद्धि थी। उन्होंने उनका उपयोग सदा अज्ञात रूपसे सेवा करनेमें ही किया था। बालूभाईका समस्त परिवार सुसंस्कृत है। उन्होंने सदा जहाँ-जहाँ उनसे हो सका, वहाँ-वहाँ तन, मन और धनसे सेवा करके ही सन्तोष नहीं माना; बल्कि