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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
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अपने छोटे भाई किशोरलालको सुसंस्कारोंसे सम्पन्न किया, वकील बनाया और फिर देश-सेवाके निमित्त अर्पण कर दिया। इस सुसंस्कृत सेवकका देहान्त गत सप्ताह[१] हुआ है। ईश्वर उनकी आत्माको शान्ति दे और निरभिमान रहकर सेवा करनेवाले ऐसे असंख्य सेवक तैयार करे। उन्होंने मरते-मरते एक पत्र लिखा था। यह पत्र देश, सत्य और अहिंसाके प्रति उनके प्रेमको व्यक्त करता है। इसलिए मैं उसे यहाँ देता हूँ[२]

उनके सम्बन्ध में भाई किशोरलालने मुझे लिखे अपने पत्र में एक अत्यन्त करुण संक्षिप्त चित्र दिया है उसे भी मैं यहाँ देता हूँ:[२]

[गुजरातीसे]

नवजीवन, १९-८-१९२८

 

२३१. राज्यसत्ता बनाम लोकसत्ता

राज्यसत्ताकी अपेक्षा लोकसत्ता अधिक बड़ी वस्तु है, यह बात बारडोलीके लोगोंने दो और दो चारकी तरह स्पष्ट सिद्ध कर दी है। यह कहा जा सकता है कि वे लोग इस सत्यको केवल अपनी शान्त रहने और शान्तिपूर्वक प्रतिरोध करनेकी शक्तिके आधारपर ही सिद्ध कर सके हैं।

राज्यसत्ता पूरी तरह राजदण्ड पर निर्भर है। यदि लोग राजदण्डका भय त्यागकर और उसे मिथ्या मानकर एवं उसका प्रतिकार हिंसासे न करते हुए निर्भय होकर विचरें तो उनकी सदा जीत ही होगी। जबतक बारडोलीके लोगोंको राजदण्डका भय था तबतक वे न्याय प्राप्त नहीं कर सके थे। किन्तु जब उन्होंने अपना वह भय त्याग दिया तब उन्होंने एक पलमें ही यह देख लिया कि शासक उनपर निर्भर थे न कि वे शासकोंपर।

लोगोंने यह भी देख लिया कि यदि वे स्वयं हिंसाका प्रयोग करें तो जीत राजदण्डकी ही होगी। यदि लोग राजदण्डका ताप सहन कर लें तो वह दण्ड निरर्थक हो जाता है। उन्होंने यह भी देख लिया कि दण्डकी शक्ति लोगोंके शरीर और धनसे आगे नहीं जा सकती। वे यह भी देख चुके हैं कि उनके हृदयको तो राजदण्ड स्पर्शतक नहीं कर सकता। वे अपने हृदय अपने सरदारको सौंपकर राजदण्डके भयसे मुक्त हो गये।

इससे हम देख सकते हैं कि लोगोंको अपनी मुक्तिके लिए न शरीर-बलकी जरूरत है और न बुद्धिबल की, उसके लिए उन्हें केवल हृदय-बलकी ही जरूरत है। हृदयबल श्रद्धापर निर्भर है। यहाँ उन्हें अपने सरदारपर श्रद्धा रखनी थी।

 

  1. १३ अगस्त, १९२८ को; देखिए "तार: नानाभाई मशरूबालाको", १३-८-१९२८।
  2. २.० २.१ यहाँ नहीं दिये जा रहे है।