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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तभीसे मेरा जीवन बहुत व्यस्तताओंसे गुजरा है। इसलिए मुझे पढ़नेका समय बहुत कम मिला। इसलिए मैं ब्राह्मसमाजके विषय में किसी तरहके अध्ययनका दावा नहीं कर सकता। मैं नहीं जानता कि मैं अभी यहाँ क्या कहूँगा। मेरी ऐसी दयनीय स्थिति है कि मैंने इस सभामें आना तो स्वीकार कर लिया किन्तु मैं इसकी कोई तैयारी नहीं कर सका। मैंने बहुत चाहा कि मेरे पास राममोहन रायकी जो छोटी-सी जीवनी है उसे पढ़ लूँ, ब्राह्मसमाजके सम्बन्धमें हो कोई किताब देख जाऊँ किन्तु इसके लिए एक क्षण भी मुझे नहीं मिला। इसलिए मैंने तो ईश्वरसे यही प्रार्थना करके सन्तोष कर लिया कि तू मेरे मुँहमें ऐसे कुछ शब्द देना जिनसे मैं किसी तरह आजका यह काम निपटा दूँ।

यद्यपि ब्राह्मसमाजका अध्ययन मैने बिलकुल नहीं किया है, किन्तु इस समाजके साथ मेरा सम्बन्ध बहुत निकटका और बहुत वर्षोंका है। १९१५ में मैं हिन्दुस्तान में आया और तभी ब्राह्मसमाजियोंके साथ मेरा निकटका परिचय हो गया था। इतना ही नहीं, बल्कि मुझे याद है कि १९०१ में और उससे भी पहले १८९६ में जब मैं कलकत्ता गया था, तब भी ब्राह्मसमाजियोंका कुछ परिचय मुझे मिला था। जिस समय एक बेकार बैरिस्टरके रूपमें मैं बम्बईमें अपना समय यों ही घूमने-फिरनेमें बिता रहा था, उस समय भी मुझमें एक तरहकी धार्मिक-जागृति थी, एक तरहकी जिज्ञासा थी। उस समय मेरी सहिष्णुताका कोई पार न था। ऐसा प्रमाणपत्र अगर कोई आदमी अपने-आपको ही दे तो यह आत्मश्लाघा कहलायेगी, मगर मेरे बारेमें आप ऐसा कोई आरोप न लगाइएगा। जिस तरह यह कहने में कोई आत्मश्लाघा नहीं है कि मैं साठ बरसका हूँ, उसी तरह यह दावा भी सही है। किसी दिन किसी धर्मकी निन्दा करनेका मन ही नहीं हुआ। अपने इस स्वभावके अनुसार कि सभी धर्मोमें जो अच्छा जान पड़े उसे ले लिया जाये और जो बुरा जान पड़े, उसके बारेमें उदासीन रहा जाये, मैं भटकता-भटकता बम्बईके प्रार्थना समाजमें जाता था। मैंने देखा कि वहाँ बहुत आदमी नहीं आते थे और जो आते थे, वे ज्यादातर शिक्षित वर्गके थे। यह बात सन् १८९२ की है। बादमें १८९६ में और फिर १९०१ में मैं कलकत्ता गया और १९०१ में गोखले तथा आचार्य रायके जरिये बहुतसे ब्राह्मसमाजियोंके साथ मेरा परिचय हुआ। उस समय गोखलेके यहाँ प्रो॰ काथवटे रहते थे। इसी समयकी बात है — महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुरके यहाँ कोई उत्सव था। हमें महर्षिके दर्शन करनेकी इच्छा हुई। हम गोखलेकी अनुमति लेकर निकल पड़े और पैदल गये। महर्षिके दर्शनकी हमें बहुत इच्छा थी किन्तु इस समय महर्षि इतने बीमार थे कि वे हमसे मिल न सके। काथवटे तो संस्कृतके पण्डित थे। उन्हें तो हिन्दुस्तानके धर्मोका गहरा ज्ञान था ही। मगर मैं तो कोरा जवान था। इसलिए मैं सुनकर जितना समझ पाता उसीसे सन्तोष कर लेता था। ब्राह्मसमाजके मन्दिरोंमें भी जाता था। पण्डित शिवनाथ शास्त्रीसे भी मेरा परिचय उसी समय हुआ। इसी समय मैंने यह भी जाना कि ब्राह्मसमाजके तीन भाग हैं। मैं प्रतापचन्द्र मजूमदारके भाषण सुनने भी जाता था। उसके बादसे बंगाल में ब्राह्मसमाजसे मेरा परिचय बढ़ता ही गया।