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हिन्दू धर्मकी बाह्य-समाज द्वारा की हुई सेवा

 

इन सब अनुभवोंसे मैं देख सका कि ब्राह्मसमाजने हिन्दू धर्मकी बहुत महत्त्वपूर्ण सेवा की है। तभीसे मेरी यह धारणा बँधी कि ब्राह्मसमाजने हिन्दुस्तान और खासकर बंगालके शिक्षित वर्गको उबार लिया है। उस समय मैंने इसे शिक्षितवर्गका सम्प्रदाय माना था। आज इतने बरसोंके निकट सम्बन्धके बाद भी मेरा यह मत कायम है। उस समय शिक्षित-समाज संकटमें था। ऐसा भय था कि कहीं वे नास्तिक न हो जायें। भारतवर्षके बारेमें मेरी ऐसी धारणा है — सम्भव है वह मेरा मोह ही हो — कि भारतवर्षमें किसी आदमीका एकाएक नास्तिक हो जाना और बना रहना असम्भव है। भारतवर्षमें धर्मकी भावना बहुत अधिक है। वह बहुत बार अन्धविश्वासका, जड़ताका, पागलपनका रूप ले लेती है। तो भी मैं मानता हूँ — मोहके वश होकर कहो या प्रेमके वश होकर – कि भारतवर्षमें बहुत दिनों तक किसीका नास्तिक बने रहना असम्भव है। तथापि इसमें कोई शंका नहीं है कि शिक्षित-समाजके ऊपर संकटकी तलवार लटक रही थी। इसी समय राममोहन रायका जन्म हुआ। मैंने सुना है कि उनपर ईसाई पादरियोंका असर था। मैंने काकासाहबसे सुना था, उन्होंने मुझे आज भी बताया कि राममोहन रायने फारसी और अरबीका गहरा अध्ययन किया था। राममोहन रायकी विद्वत्ताके बारेमें दो मत नहीं हैं। उनकी उदारताके बारेमें भी दो मत नहीं हो सकते। हिन्दु धर्म और उसमें भी उन्होंने वेद-धर्मका विशेष अध्ययन किया था। उन्होंने इन तीनों धर्मोका असर अपने ऊपर पड़ने दिया। इसके फलस्वरूप उन्हें लगा कि बंगालमें एक नया सम्प्रदाय खड़ा करना ही पड़ेगा। गुजरातमें हमें यह सुनकर आश्चर्य लगेगा। हम व्यापारी हैं। बंगालमें इससे उलटी परिस्थिति होनेके कारण वहम भी उतने ही बढ़े हुए थे, अंध रूढ़ियाँ इतनी ज्यादा चल रही थीं कि जिस तरह हम गुजरात में रह सकते हैं, उस तरह राममोहन राय शायद वहाँ नहीं रह सकते थे। ४० बरस पहले काठियावाड़में किसी हिन्दूको जैसा जीवन बिताना हो, जो विचार रखने हों, कोई उसमें अड़ंगा नहीं लगाता था। अपनी बाल्यावस्थामें [धर्मके सम्बन्धमें] मैं जो विचार करता था, मेरे माता-पिता या कोई अन्य उसका विरोध नहीं करते थे। बंगालमें इससे उलटी परिस्थिति थी। शिक्षित-वर्गको धर्म-विकासके लिए किसी साधनकी जरूरत थी। धर्मके नामपर हिंसा हो, धर्मके नामपर पशुओंका बलिदान किया जाये, तो यह शिक्षित वर्ग इसे स्वीकार नहीं कर सकता था। जहाँ बुद्धिका कोई स्थान न हो, जहाँ अंध श्रद्धाको ही धर्मका रूप दिया जाता हो, वहाँ शिक्षित वर्ग उसमें कैसे शामिल हो सकता है? उसे वह अपनी स्वीकृति कैसे दे सकता है? राममोहन राय चाहते तो केवल अपने ही मनका समाधान करके चुपचाप बैठे रह सकते थे। किन्तु वे तो सुधारक थे। जो वस्तु उन्होंने पाई थी, उसे ताला-कुंजी लगाकर, या जेबमें छिपाकर वे नहीं रख सकते थे। इसलिए उन्होंने अपने विचार प्रकट किये, दूसरोंको उनमें शामिल किया और इस तरह इस समाजकी उत्पत्ति हुई।

तथापि यदि इसमें महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर-जैसे व्यक्ति शामिल न हुए होते तो यह समाज टिक नहीं सकता था। यह तो भविष्य ही बतायेगा कि ठाकुर-