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हिन्दू धर्मकी ब्राह्मसमाज द्वारा की हुई सेवा

लोग धर्मके विषय में उदासीन अथवा नास्तिक थे, उन्हें कुछ धर्म-भावना मिले। मैं तो केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि ब्राह्मसमाजको जितनी सफलता बंगाल में मिली, उतनी बम्बईमें न मिलनेका कारण यह है कि यहाँ धर्म-भावना बंगालके समान कम नहीं हो गई थी।

धर्मका तात्पर्य संकुचित सम्प्रदाय या केवल बाह्याचार नहीं है। धर्मका व्यापक अर्थ है — ईश्वरत्वके विषय में हमारी अटल श्रद्धा, पुनर्जन्ममें अविचलित श्रद्धा, सत्य और अहिंसामें हमारी पूर्ण श्रद्धा। आज तो पुस्तकों और निबन्धोंमें धर्मकी चर्चा ही भरी होती है। आज धर्मके नामपर अधर्म चलता है, पशुबलि चलती है। बंगालमें आज भी हजारों निर्दोष बकरों और भेड़ोंकी बलि दी जाती है। मद्रास इलाकेमें और महाराष्ट्रमें कई जगह धर्मके नामपर ऐसी कई वस्तुएँ आज भी चल रही हैं जिनके बारेमें मेरा खयाल था कि वे तो बन्द हो गई होंगी। मैं मानता हूँ कि यह धर्म नहीं किन्तु अधर्म है, एक प्रकारकी मूढ़ता है। इस मूढ़तासे निकल जाना युवक-वर्ग, शिक्षित-वर्गका धर्म है। राजनीतिक विषयोंमें आज हम इतनी दिलचस्पी लेते हैं कि राजनीतिक सभाओंमें हजारोंकी संख्यामें जाते हैं। इतनी दिलचस्पी हमें धर्म-मन्दिरोंके सम्बन्धमें नहीं है। धर्म-मन्दिर, देवालय वगैरहको हमने स्त्रियोंके लिए, अज्ञानियोंके लिए या बावलोंके लिए रख छोड़ा है। जहाँ सचमुच में ईश्वरकी प्रार्थना होती है, वहाँ बहुत कम आदमी जाते हैं। हम शिक्षित-वर्गके लोगोंको यह वृत्ति छोड़ देनी चाहिए।

अगर आपको पता न हो तो मैं बतलाता हूँ। वल्लभभाई बारडोली जाकर लड़ाई जीत आये, उसके लिए आपने उन्हें सोनेकी मालाएँ पहनाई, अब भी दावतें दे रहे हैं, किन्तु इन्होंने जो एक दूसरी विजय प्राप्त की है, उसका पता आपको नहीं है। वल्लभभाईको बारडोलीकी लड़ाईमें 'वल्लभ' मिले हैं। यह वल्लभभाईकी कही हुई बात नहीं है, किन्तु मुझसे एक नहीं बल्कि उनके नीचे काम करनेवाले अनेक स्वयंसेवकोंने यह बात कही है। लोगोंको अपनी शक्तिका भान कराते-कराते वल्लभभाईकी धर्म-जागृति विशेष हुई है। बात यह नहीं है कि उनमें पहले धर्म-जागृति न थी, बल्कि यह बात उन्होंने बारडोलीमें सीखी कि धर्म कैसी चमत्कारपूर्ण वस्तु है। उन्होंने देखा कि अगर हमें अनपढ़ जनता में काम करना है, रानीपरज लोगोंकी — जिन्हें हम कलतक कालीपरज कहा करते थे — सेवा करनी है, उन्हें स्वराज्यवादी यानी रामराज्यवादी बनाना है तो ये काम धर्म-जागृतिके द्वारा ही हो सकेंगे। अगर कोई वल्लभभाईके बारडोलीके भाषणोंका संग्रह करके छपाये तो वह संग्रह धार्मिक भाषणोंका संग्रह हो जायेगा। वे अगर लोगोंको एक कर सके हैं तो रामनामके द्वारा ही। उनके स्वयंसेवक 'रघुपति राघव राजाराम' की धुनमें लोगोंको तल्लीन कर देते हैं। वल्लभभाई लोगोंको समझा सके कि जिस ईश्वरके नामपर हमने प्रतिज्ञा ली थी उसे हम धोखा न दें। मैं तो बारडोलीके लोगोंको भली-भाँति पहचानता हूँ, क्योंकि वहाँके बहुत-से आदमी दक्षिण आफ्रिकामें मेरे मुवक्किल थे। मैं यह भी जानता हूँ कि इन लोगोंकी प्रतिज्ञाकी क्या कीमत है। ऐसे लोगोंको वल्लभभाई कैसे समझा