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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सके? उनकी यह लड़ाई एक लाख रुपये बचाने के लिए नहीं थी। बारडोलीके लोगोंमें यह शक्ति है कि वे ऐसे कई लाख चाहें तो फेंक दें। बारडोलीके पटेलोंके लिए तो एक लाख रुपये उनके हाथका मैल है। उसे वे जब चाहें उठाकर पानीमें बहा दे सकते हैं। वल्लभभाईने लोगोंको समझाया कि ईश्वरके नामपर प्रतिज्ञा लेनेवालेके प्रतिज्ञा तोड़नेपर ईश्वर उससे रूठेगा, और राजा भी उसकी रक्षा नहीं कर सकेगा। इसी धर्मके बलपर उन्होंने स्त्रियोंमें भी जागृति पैदा की। मैं कहना चाहता हूँ कि अगर शिक्षित वर्गको लोकसेवा करनी हो तो उनमें धर्मकी आस्था होनी चाहिए। उसके अभावमें वे सेवा नहीं कर सकेंगे।

मेरे पास युवकोंके ढेरके-ढेर पत्र आते हैं। वे अपनी अनेक कुटेवोंकी बात लिखते हैं और अपने जीवनकी शून्यताकी बात करते हैं। मैं इन्हें क्या डाक्टरी सलाह दूँ? इस बारेमें ऐसी सलाहका बहुत कम उपयोग है। धर्म पुकार-पुकारकर कहता है कि कुटेवोंसे मुक्ति तो ईश्वरकी कृपाके बिना नहीं मिल सकती। युवक-वर्ग उसे अगर प्राप्त करना चाहता हो तो आज इस प्रसंगपर हमारा कर्त्तव्य है कि चाहे जिस तरह हो, हम अपने जीवन में धर्मको उसका योग्य स्थान दें।

अन्तमें युवक वर्गसे मैं कवि अखाके शब्दोंमें कहना चाहता हूँ कि — 'सूतर आवे तेम तुं रहे, जेम तेम करीने हरिने लहे।' तुम्हें जिसमें सुविधा हो, वैसे रहो पर ऐसे कि किसी-न-किसी तरह हरिको पा जाओ।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, २६-८-१९२८

 

२३३. पत्र: मोतीलाल नेहरूको

सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
२१ अगस्त, १९२८

प्रिय मोतीलालजी,

आपका पत्र मिला। इस सप्ताहके 'यंग इंडिया' में भी मैंने आगामी सम्मेलन[१] पर लिखा है। लेकिन मैंने रिपोर्टकी विषय-वस्तुके बारेमें न लिखना ही ठीक समझा। इसके बजाय मुझे सैद्धान्तिक टीका-टिप्पणीसे बचनेके महत्त्वपर जोर देना और हिन्दुओं और मुसलमानोंसे छोटे-मोटे स्वार्थोंपर दुराग्रह न रखनेका अनुरोध करना अधिक समीचीन लगा। सिफारिशोंके बारेमें मेरे लिखनेकी क्या जरूरत है? अभी तो मेरा मन, यदि उसे मजबूर ही न कर दूँ तो, संविधानके रूपके बारेमें सोचनेको तैयार नहीं है। क्योंकि मुझे लगता है कि हम चाहे जितना अच्छा संविधान बना लें, यदि उसे कार्य-रूप देनेवाले लोग काफी अच्छे न हों तो उससे हमें कोई लाभ नहीं हो

 

  1. देखिए "सबकी नजर लखनऊपर", २३-८-१९२८। इससे पहलेके लेखके लिए देखिए "नेहरू रिपोर्ट", १६-८-१९२८।