पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 37.pdf/२३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२०५
पत्र: बहरामजी खम्भाताको

सकेगा। इसलिए यदि सिर्फ मतैक्य हो सके तो मुझे ऐसी कोई भी चीज जो गैर-मुनासिब न हो, स्वीकार कर लेने लायक लगती है, क्योंकि संविधानके सम्बन्धमें मतैक्य मुझे सबसे महत्त्वपूर्ण चीज जान पड़ती है। लेकिन आम तौरपर मैं यह कह सकता हूँ कि सर तेजबहादुर सप्रू और सर अली इमामके सम्बन्धमें तो आपने अद्भुत सफलता पाई है। उदाहरणके लिए, मताधिकार या देशी राज्योंके सम्बन्धमें सुझाये आपके समाधानकी स्वीकृतिकी मुझे आशा नहीं थी। लेकिन देखता हूँ कि हिन्दू-मुस्लिम समस्या अब भी एक कठिन समस्या बनी रहेगी।

और जहाँतक मेरी बात है, अभी तो मेरा मन साबरमतीसे बाहर निकलने को तनिक भी नहीं होता। बल्कि मैं तो चाहूँगा कि बाहर आना-जाना बिलकुल बन्द करके साबरमतीमें ही जमकर बैठ जाऊँ और यहींसे 'यंग इंडिया' और 'नवजीवन' तथा पत्राचारके जरिये जो-कुछ कर सकता हूँ, करता रहूँ। आश्रममें ही मेरे लिए बहुत ज्यादा काम है। पता नहीं, आप यह जानते हैं या नहीं कि बारडोली-संघर्ष इस आश्रमके कारण ही सम्भव हो सका। बारडोलीके अधिकांश कार्यकर्त्ता या तो सीधे आश्रममें या इसके प्रभावमें तैयार हुए हैं। यदि मैं आश्रमको, जैसा मैं चाहता हूँ, वैसा बना सकूँ तो बहुत बड़े पैमानेपर मोर्चा लेनेको तैयार रहूँगा।

हृदयसे आपका,

अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १३६६७) की फोटो-नकलसे।

 

२३४. पत्र: बहरामजी खम्भाताको

आश्रम, साबरमती
२१ अगस्त, १९२८

भाईश्री खम्भाता,

तुम्हारा पत्र मिला; १००) रु॰ भी। प्राप्ति-स्वीकारमें तुम्हारा नाम जान-बूझकर तो प्रकाशित नहीं किया गया है। तुम्हारे लिए इस बातका ज्ञान होना ही पर्याप्त है कि तुम नामके भूखे नहीं हो। नाम प्रकाशित हो जाने से तुम्हें नुकसान तो होगा ही नहीं। इस बार हम और अधिक सावधानी बरत रहे हैं। यदि तुम्हारा दर्द चला जाये तो हम भगवान्का आभार मानेंगे। मुझे इस बारेमें जब-तब लिखते रहना।

तुम दोनोंको आशीर्वाद।

बापू

मूल गुजराती (सी॰ डब्ल्यू॰ ५०१७) से।

सौजन्य : तहमीना खम्भाता