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जैसा कि तुमने देखा होगा, मैं लखनऊ नहीं गया और न ही मैं निकट भविष्यमें इलाहाबादसे गुजरनेवाला हूँ।

मुझे जब-तब लिखती रहना।

हृदयसे तुम्हारा,

श्रीमती रोहिणी पूर्वया
लेडी प्रिंसिपल, कॉस्थवेट गर्ल्स कालेज, इलाहाबाद

अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १३५००) की फोटो-नकलसे।

 

२६१. यूरोप जानेवालो, सावधान!

अब चूँकि इतने लोग यूरोप जाने लगे हैं और असहयोगके बादसे हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानियोंके बारेमें वहाँ दिलचस्पी बढ़ गई है, इसलिए यूरोपकी सार्वजनिक संस्थाएँ और राजनीतिक दल उन लोगोंका अधिकाधिक समय लेना चाहते हैं। मगर हममें से किसीको कमसे-कम उसकी तो कोई आशा नहीं थी जो बाबू राजेन्द्रप्रसादको भुगतना पड़ा। कुछ महीने पहले एक महत्त्वपूर्ण मुकदमेके सिलसिलेमें राजेन्द्रबाबू लन्दन गये थे। अपना मुकदमा खत्म करके यूरोपके देशोंमें उन्होंने थोड़ा भ्रमण शुरू किया और इसी सिलसिले में वे विएनाके युद्ध-विरोधी सम्मेलनमें भी शामिल हुए।

एक अनजान आदमीके कहने से उन्होंने पासके ही एक स्थानमें आयोजित एक और कार्यक्रममें शामिल होना स्वीकार कर लिया। कुछ दिन पहले 'बॉम्बे क्रॉनिकल' - में एक तार छपा था कि राजेन्द्र बाबू जब सभामें शान्ति पर बोल रहे थे, तभी फासिस्टोंने उपद्रव करके सभा भंग करवा दी और राजेन्द्र बाबू पर सख्त मार पड़ी। राजेन्द्र बाबूकी ओरसे ऐसा कोई तार न मिलनेके कारण मैंने मार-पीटकी बातपर विश्वास न किया। जिस दिन अखवारमें मार-पीटकी खबर पढ़ी, उसी दिन राजेन्द्र बाबूका एक तार भी मुझे मिला था, जिसमें उन्होंने मुझसे हालैंडमें होनेवाले युवक-सम्मेलनके लिए सन्देश[१] माँगा था। फलतः मारपीटके बारेमें रहा-सहा शक भी जाता रहा। मगर पिछली डाकसे मेरे पास एक आस्ट्रियाई अध्यापक और उनकी पत्नीका पत्र आया है, जिसमें उन्होंने उस मार-पीटका विस्तृत वर्णन दिया है। इससे अखबारोंमें छपी खबरकी पुष्टि हो गई है। नीचे मैं उस पत्रका आवश्यक अंश[२] दे रहा हूँ, जिसमें यूरोपके देशोंमें जानेवाले सभी हिन्दुस्तानियोंके लिए एक चेतावनी भी है:

 

  1. देखिए "तार: राजेन्द्रप्रसादको", १६-८-१९२८ को या उसके पश्चात।
  2. इसका अनुवाद यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पत्र-लेखकके विवरण के अनुसार उन्हें गांधीजी का वह पत्र, जिसमें उन्होंने राजेन्द्र बाबूका परिचय दिया था, १ अगस्तको ९ बजे मिला। पत्र पाकर उन्हें बड़ी खुशी हुई, लेकिन जब उन्होंने पत्रकी पीठ पर एक ऐसे व्यक्ति द्वारा, जिसका नाम उन्होंने पहले कभी नहीं सुना था, यह लिखा देखा कि भाई राजेन्द्रप्रसाद 'स्टीनफेल्डर सेल' में भाषण करेंगे और वे चाहते हैं कि आप उनसे वहां मिलें', तो उनका मन आशंका से भर उठा। 'स्टीनफेल्डर सेल' एक शराबखानेका नाम था, जहाँ उस दिन 'शान्ति-स्वातन्त्र्यार्थ अन्तर्राष्ट्रीय महिला लीग' की सभा होनेवाली थी। पत्र पानेके बाद शाम तक वे उस संघके किसी सदस्यते सम्पर्क स्थापित करने की कोशिश करते रहे, मगर कर नहीं पाये। निदान वे राजेन्द्र बाबूको लेने स्टेशन चले गये। राजेन्द्र बाबूको इस सभाकी पूर्व परिस्थितियोंकी कोई जानकारी नहीं थी, और न वे उपर्युक्त वाक्य लिखनेवाले व्यक्तिको ही अच्छी तरह जानते थे। फिर भी वे वहाँ जानेको तैयार हो गये। वह इलाका युद्धवादियों और हिंसाके समर्थकोंका केन्द्र था। सभा-स्थलपर पहुँचकर उन लोगोंने देखा कि वहाँका दृश्य तो अजीब था। हॉल सिगरेटके घुएँसे भरा था और मेजोंपर बीअरके गिलास पड़े हुए थे। महिला-समितिकी कोई सदस्था वहाँ नहीं थी और न वह व्यक्ति ही था जिसने पत्रकी पीठपर उपर्युक्त वाक्य लिखा था। ये लोग ज्यों ही महिला-समितिकी मेजके पास पहुँचे कि कुछ लोगोंने इनपर हमला कर दिया। इन लोगोंपर मार पड़ी, लेकिन पत्र-लेखक और एक अन्य साथीने खुद चोट खाकर राजेन्द्र बाबूकी काफी रक्षा की, जिससे उन्हें ज्यादा चोट नहीं आई। बादमें पता चला कि वास्तवमें वे लोग एक अराजकतावादीको पीटना चाहते थे, जो उस दिन उस सभामें बोलनेवाला था। उन्होंने राजेन्द्र बाबूको वही व्यक्ति समझकर उन्हें मारा-पीटा।
    आगे पत्र-लेखकने बताया था कि राजेन्द्र बाबू दूसरे दिन मोशिए रोमा रोलाके यहाँ विहेन्यू चले गये और वहांसे उनका पत्र आया है कि अब वे अच्छे हैं।
    इस घटनाका वर्णन करनेके बाद उन्होंने गाँधीजी को सलाह दी थी कि वे यूरोप आनेवाले भारतीयों को आगाह कर दें। उन्हें आँख मूंदकर जिस-किसीका विश्वास नहीं कर लेना चाहिए और अजनबी लोगोंसे होशियार रहना चाहिए।