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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

श्रीयुत पुजारी कहते हैं:

अपने ९ महीनोंके अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि
१.   इन इलाकोंमें एक सहायक गृह-उद्योग नितान्त आवश्यक है।
२.   ये चरखे उस आवश्यकताकी पूर्ति जितनी खूबीसे करते हैं उतनी खूबीसे और कोई चीज नहीं कर सकती।
३.  यह काम कर सकना इसीलिए सम्भव हुआ है कि राज्यने यथोचित प्रोत्साहन दिया है और कतैये तथा बुनकर आश्वस्त हैं कि अमुक मात्रामें उनके मालकी खपत होगी ही।
४.   भारतके अन्य हिस्सोंमें भी ऐसी परिस्थितियोंमें यही परिणाम आना चाहिए।
५.   हाथ-कताईके कारण गाँवका धन रैयतकी झोंपड़ियोंसे राज्य-कोष तक और राज्य-कोषसे रैयतकी झोंपड़ियों तक बराबर गतिमान रहता है।
६.   भारतके ६,८५,००० गाँवोंमें बसे कृषकोंको जो अतिरिक्त शक्ति अभी बरबाद हो रही है उसका सदुपयोग करनेका यह सबसे अच्छा तरीका है।
७.   और अन्त में, सूत कातनेवाले प्रत्येक ग्रामीणको चरखा चलानेमें लगाये एक-एक घंटे के लिए तीन-तीन पाइयोंकी प्राप्ति होती है। जिस जन-समुदायकी दैनिक आय प्रतिदिन सिर्फ १ आना ७ पाई कृती गई है, उसके लिए यह वृद्धि कोई मामूली बात नहीं है।

श्रीयुत पुजारी आगे कहते हैं:

यदि भारतके दूसरे राज्य भी मैसूर राज्यका अनुकरण करें तो यह कितना बड़ा वरदान साबित हो।

मैं उनकी इस शुभेच्छाका समर्थन करता हूँ।

बैलोंके प्रति अत्याचार

एक अंग्रेज महिला लिखती हैं:[१]

यह सच है कि भारतका भ्रमण करनेवाली ये महिला कुछ-एक उदाहरणों से ही एक सामान्य धारणा बनाकर भारतके सभी लोगों पर बैलोंके प्रति अत्याचार

  1. इसका अनुवाद यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पत्र-लेखिकाने हिन्दुस्तानियों द्वारा 'विशेषकर अपनेको गो-रक्षक कहनेवाले हिन्दुओं द्वारा', बैलोंके साथ किये जानेवाले अत्याचारपर गहरा दुःख प्रकट किया था। उनको शिकायत थी कि बैलोंपर उनकी शक्ति से अधिक बोझ लाद दिया जाता है और उनकी पूँछ उमेठ-उमेठ कर उन्हें जबरदस्ती चलानेके कारण उनकी पूँछें टूट जाती हैं और क्षत-विक्षत हो जाती हैं। बैलोंके साथ किये जानेवाले इस अमानवीय व्यवहारको उसने "हिन्दू धर्मके लिए लज्जाका विषय" कहा था। उन्होंने यह भी शिकायत की थी कि लोग मुर्गियों आदिको टांगोंसे पकड़कर दूर-दूर तक ले जाते हैं। गांधीजीसे यंग इंडिया में इन बुराइयोंके खिलाफ लिखनेका अनुरोध करते हुए उन्होंने बैलोंके कन्धोंपर जुए डालने के बजाय घोड़के-जैसे साजका उपयोग करनेका सुझाव दिया था।