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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
सारे प्रदेश में सूत काता जाता है और ऐसा नहीं है कि यह काम किसी खास जाति या क्षेत्रके ही लोग करते हों।
एक औरत सप्ताह में १ पौंडसे ज्यादा देशी सूत नहीं कात सकती। इतने सूतकी कीमत ८ आने होती है और इन पैसोंमें से आधा सप्ताह-भरकी कताईका शुद्ध मेहनताना होता है। फिर भी औरतोंको अपने घरोंमें खाली समयमें कुछ काम मिल सके, इसलिए कताई की जाती है।

जो बात बरार पर १८९७ में लागू होती थी, वह आज और भी ज्यादा लागू होती है। कारण, बरारके लोगोंको अपनी पैदा की हुई रुईको बेचनेका इतना अधिक मोह है कि औरतोंने चरखोंको त्याग ही दिया है और आज बरारमें हाथ-कते सूतका कपड़ा बहुत कम बुना जाता है। यदि सचमुच बरारका औद्योगीकरण किया जा सके तो बरारसे एक पौंड भी रुई बाहर न जाये। तब वह यहाँसे बाहर जायेगी तो केवल ग्रामवासियोंके झोंपड़ोंमें तैयार की गई खादीके ही रूपमें जायेगी और उस खादीको तैयार करनेके लिए उन्हें अपने किसी अन्य धन्धेसे समय बचानेकी जरूरत पड़ेगी, ऐसा भी नहीं है।

सहकारी खादी क्रय

जी॰ वी॰ आर॰ नागपुरसे लिखते हैं:[१]

चन्देकी प्राप्तिकी सूचना

श्री दीवान ए॰ मेहता 'पिल्स्ना' जहाजके भारतीय यात्रियोंसे मुझे देनेके लिए (२७० रुपये) चन्दा करके लाये थे। उसके साथ यह शर्त थी कि यदि बारडोली-संघर्ष समाप्त हो गया हो तो वह रकम मैं अपनी पसन्दके समाज-सेवाके किसी कार्यमें लगा दूं। मैंने उसे अस्पृश्यता निवारणके कामके लिए अलग रख दिया है। बारडोली-कोषके लिए किये चन्देकी सूचीमें, जो 'यंग इंडिया' के परिशिष्टमें हर हफ्ते छपती है, उसे ठीकसे दिखाया नहीं जा सका। इसलिए अब मैं यहाँ उसकी प्राप्तिकी सूचना साभार प्रकाशित कर रहा हूँ।

[अंग्रेजीसे]

यंग इंडिया, ३०-८-१९२८

 

  1. इसका अनुवाद यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पत्र-लेखकने रेलवे कर्मचारियों द्वारा सहकारी खादीऋथ क्लबोंके गठन और उसके लाभोंके बारेमें लिखा था।