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२६५. पत्र: वसुमती पण्डितको

आश्रम, साबरमती
३१ अगस्त, १९२८

चि॰ वसुमती,

तुम्हारा पत्र मिला। हकीम और डाक्टरकी फीसके विषय में मैं लिख चुका हूँ।[१] वहाँ रहना अनुकूल न आता हो तो यहाँ चले आनेके लिए भी लिख चुका हूँ। किन्तु यदि मसूरी जानेकी सुविधा हो और वहाँ तुम्हें इतना अच्छा लगा हो तो वहाँ जाकर अपनी तबीयत बिलकुल अच्छी क्यों न कर लो? और उसके बाद यदि देहरादूनमें रहना मुश्किल हो गया हो तो यहाँ आ जाओ। यह तो मेरी सलाह मात्र है। किन्तु यदि तुम्हारा मन अब वहाँ बिलकुल न लगता हो और स्थिति ऐसी जान पड़ती हो कि काम किया ही नहीं जा सकता तो अविलम्ब यहाँ चली आना। इसमें दुबारा मेरी अनुमति मांगनेकी जरूरत मत समझना। विद्यावतीको तो इस सम्बन्धमें कुछ लिखनेकी जरूरत नहीं है न? जो भी हो घबराना बिलकुल नहीं और न झूठी शर्मके कारण अपनी शक्ति से बाहर जाकर कोई काम करना। अपनी शक्तिके अनुसार नम्रतापूर्वक काम करना ही शोभता है और ऐसा ही काम फलता भी है। 'श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः'[२] का यही अर्थ है।

पत्रका इतना हिस्सा लिखानेके बाद तुम्हारा पत्र आया। और अब तुमने वहाँ न रहनेका निश्चय कर ही लिया है तो इसमें कोई परिवर्तन करनेकी जरूरत नहीं है। किन्तु यदि मसूरी जाना सम्भव हो और वहाँ जानेकी तुम्हारी इच्छा भी हो तो जानेमें कोई हानि नहीं है। चूँकि तुम एक दिनके लिए दिल्लीमें रुकना चाहती हो इसलिए यदि देवदाससे मिलनेकी इच्छा हो तो मिल लेना। देवदास जामिया मिलियामें है। यह संस्था करोलबाग में है। यह मुसलमान भाइयोंका विद्यापीठ है। देवदासको उसके काममें मदद पहुँचानेके लिए नवीन और रसिक यहाँसे रविवारको निकलकर वहाँ सोमवारको पहुँचेंगे।

दुवारा नहीं पढ़ा है।

बापूके आशीर्वाद

मूल गुजराती (सी॰ डब्ल्यू॰ ४९९) से।

सौजन्य: वसुमती पण्डित

 

  1. देखिए "पत्र: वसुमती पण्डितको", २७-८-१९२८।
  2. भगवद्गीता, १८-४७।